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________________ चाँदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी, प्रभु भवआताप निवार, तुम पद बलिहारी।।' इस काव्य में उपमान छन्द मनोहर राग को व्यक्त करता हुआ हृदय में उपासकों के भक्तिरस को प्रवाहित करता है। श्री सिद्धचक्र मण्डल विधान (महापूजा-काव्य) पूजा-काध्य के अनेक प्रकार होते हैं, सामान्य या एक पूजा को पूजा-काव्य कहते हैं। व्रत-नियम की प्रतिज्ञा कर, पूर्ण अवधि तक विधिपूर्वक जो व्रत की साधना की जाती है, व्रत नियम सम्पूर्ण होने पर उसका उद्यापन (समारोहपूर्वक व्रत नियम की समाप्ति या विसर्जन) जिस पूजा से किया जाता है वह व्रतोद्यापनपूजा-काव्य कहा जाता है। जैसे रविव्रतोद्यापनपूजाकाव्य, दशलक्षणव्रतोद्यापनपूजाकाव्य, मोक्षसप्तमीव्रतोद्यापनपूजाकाच्य, सुगन्धदशमीव्रतोद्यापनपूजाकाव्य। ये काव्य संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि भाषाओं में रचित हैं जिनके नाम संस्कृत पूजा-काव्यों की सूची में पहले दिये गये हैं। जिनपूजा-काव्यों में विस्तार से विशेष पूजा की प्रक्रिया कही गयी है उनको विधान शब्द से कहा जाता है जैसे सिद्ध चक्र मण्डल विधान, इन्द्रध्वजमण्डल विधान, नन्दीश्वर विधान, ऋषिमण्डल विधान, नवग्रह विधान, पंचकल्याणक विधान इत्यादि। श्री सिद्ध चक्र मण्डल विधान का संक्षिप्त परिचय इस सिद्धचक्रविधान महापूजा-काव्य की रचना श्री कविवर सन्तलाल ने अपने भक्तिभाव से प्रेरित होकर निप्पन्न की है। इस महाकाव्य में 22/15 पद्यों की रचना के माध्यम से सिद्ध परमात्मा के गुणों का स्तवन किया गया है। इन पयों में प्रचुर अलंकार और छन्दों के प्रयोग से शान्तरस का प्रबल प्रवाह वृद्धिंगत होता है। निश्चय वा व्यवहार, सर्वथा मंगलकारी. जगजीवन के विघनयिनाशन सर्वप्रकारी। शिष्यन के अज्ञान हर, ज्यों रवि अँधियारा, पाठकगुण सम्भवै सिद्धप्रति नमन हमारा।। जय भवभय हार, बन्धविहार, सुखसारं शिव करतारं । नित 'सन्त' सु ध्यावत, पाप नशावत, पावत पर निज अविकारं। ।। वृहत् महावीर कीर्तन, सं.प. पंगतसेन विशारद, प्र.-श्री वीरपुस्तकालय, पहावीर जो, 1471, मृ. 36-810 214 :: जैन पूजा-कान्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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