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________________ धर्म समर्पण किया गया है, इसमें पंचचामर छन्द शोभित है। इसमें स्वभावोक्ति एवं रूपकालंकार की कान्ति से शान्तरस चमकता है। इस सहस्रनाम स्तोत्र के अन्त में एक पद्य कहा गया है जो भाईलविकीडित छन्द में रचित है जिसका भावसौन्दर्य इस प्रकार है : हे भगवन् ! तीन लोक के प्राणी आपकी स्तुति करते हैं पर आप किसी की भी स्तुति नहीं करते हैं योगीजन आपका सदा ध्यान करते हैं परन्तु आप स्वयं किसी का ध्यान नहीं करते हैं आप नतमस्तकों को भी उन्नत मस्तक करनेवाले हैं अर्थात् अवनत को भी उन्नत करनेवाले हैं और जगत के प्राणी आपको नमस्कार करते हैं परन्तु आप स्वयं किसी को भी नमस्कार नहीं करते हैं इसलिए आप यथार्थ में श्रीमान् हैं, तीन लोक के श्रेष्ठगुरु हैं, सबसे प्रथम पवित्रदेव हैं। इस पद्य में परिकर तथा व्याजस्तुति अलंकार के द्वारा भक्तिरस अलंकृत होता है। अन्त में प्राकृत जयमाला का अन्तिम प्राकृत पद्य : एण थोतेण जो पंचगुरु वंदए, गुरुयसंसारघणवेल्लि सो छिदए। लहइ सो सिद्धसुक्खाई बरमाणणं, कुणइ कम्मिंधणं पुंजपज्जालणं ॥ अरिहा सिद्धाइरिया, उवञ्झाबा साहु पंचपरमेट्ठी। एयाणणमुक्कारो, भन्ने भवे मम, सुहं दितु ॥ सारांश-इस पूजास्तोत्र के द्वारा जो मानव पंचपरमेष्ठीगुरुओं की वन्दना करता है वह मानव विशाल संसार दुःख रूपी सघन लता का विच्छेद कर देता है, कर्मरूप ईधन के समूह को भस्म कर देता है और वह श्रेष्ठ मानव सिद्ध परमात्मा के अक्षय सुख को प्राप्त करता है। जो भव्य मानव अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु-इन पंचपरमेष्ठी देवों को विनयपूर्वक वन्दना करता है वह जन्म-जन्म में पुण्य सुख को प्राप्त करे और मेरे पूजानिर्माता एवं पूजा कारक) लिए भी सुख की प्राप्ति हो। षोडशकारण (भावना) पूजा जैनदर्शन में चौबीस तीर्थकरों को मान्यता है। जो इस जगत् में अबतार लेकर विश्वकल्याण के लिए धर्मतीर्थ का प्रवतंन करे उसे तीर्थंकर, तीर्थकृत या तीर्थकर कहते हैं। इनसे ही मूलतः जैन पूजा-काव्य का उद्भव हुआ है। तीर्थकर वहो आत्मा होता है जो अपनी साधना से सोलह भावनाओं या विशेष कारणों का चिन्तन करता है। भावना का तात्पर्य है कि तत्त्व को बार-बार चिन्तन करना, मनन करना। इससे तन्व-विचार और सिद्धान्त के प्रति दृढ़ता प्राप्त होती है। भावना माता के समान आत्मा का हितकर और खेती को बाड़ी की तरह संरक्षक होती है। भावना सोलह प्रकार की होती हैं-(1) दर्शनविशुद्धि (25 दोषरहित शुद्ध सम्यक् दर्शन श्रद्धा) मम्कृत और प्राकृत जैन पूजा-कायों में छन्द... :: 18y
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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