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भक्तामरमण्डलपुजा - ( प्रथम )
आचार्य सोमसेन मुनिराज ने हीरापण्डित जो कि देवशास्त्र गुरु का परमभक्त था, उसके प्रार्थना करने पर भक्तामरमण्डल पूजा का निर्माण किया है। ईशा की सातवीं शती के मध्यवर्ती आचार्य श्रीमानतुंग ने भक्तामर ( आदिनाथ ) स्तोत्र की रचना कर भगवान ऋषभदेव के गुणों का कीर्तन किया है। जैन समाज में इसकी विशेष प्रसिद्धि है। आचार्य मानतुंग के उत्तरकालवर्ती श्री सोमसेन आचार्य ने इस स्तोत्र की महत्ता एवं विशेष प्रसिद्धि को देखकर भक्तामरमण्डलपूजा की रचना की है। सर्वप्रथम इस पूजा की भूमिका या पूर्व पीठिका में सोलह श्लोक रचे गये हैं, प्रारम्भ के दो पद्य उपजाति वृत्त में तीन से लेकर सोलह पद्य तक अनुष्टुप छन्द में रचित हैं। इसके बाद भगवान ऋषभदेव की स्तुति है जिसका प्रथम पद्य सग्धसछन्द में दो से लेकर सं. 11 श्लोक तक वसन्ततिलका छन्द में, बारहवां पद्य मालिनी छन्द में रचित है। इसके बाद भगवान ऋषभदेव का पूजन है जो पूजा पं. सं. 202 में लिखी गयी है।
इसके पश्चात् भक्तामरस्तोत्र के 48 काव्य मन्त्र-यन्त्र सहित हैं। ये सम्पूर्ण काव्य वसन्ततिलका छन्द में रचित हैं। इसके बाद 49वां पद्य शार्दूलविक्रीडित छन्द में, पचासवाँ पद्य द्रुतविलम्बित छन्द में 51वां पद्य अनुष्टुप छन्द में रचित है। इसके बाद 18 मन्त्रों द्वारा ऋद्धिधारी तपस्वी मुनीश्वरों का पूजन किया गया है। अनन्तर त्रोटक छन्द में जयमाला के दस पद्य हैं, सं. 11 का पद्य अनुष्टुप छन्द में, 12वां पद्य मालिनी छन्द में, 13वां पद्य वसन्ततिलका छन्द में रचित है। अन्त के ये दो पच आशीर्वाद वचन के रूप में हैं।
यह भक्तामरमण्डल पूजा भक्तामर स्तोत्र के माध्यम से होती है। इसमें प्रतिमा जी के आगे मण्डल स्थापित किया जाता है। गोल रेखाकार चित्र को मण्डल कहते हैं, इसमें 49 कोष्ट (खाने) होते हैं। सबसे प्रथम मध्य के कोष्ठ में 'ओ' लिखा जाता है, इसके चारों ओर गोलाकार आठ कोष्ठ, इसके चारों ओर गोलाकार सोलह कोष्ठ, इसके चारों ओर गोलाकार चौबीस कोष्ट, कुल मिलाकर 48 कोष्ठ होते हैं। इन 48 कोष्ठों में 'क्लीं' बीजाक्षर मन्त्र लिखा जाता है। इस ही मण्डल पर श्रीफल सहित पाँच कलश स्थापित किये जाते हैं। मण्डल स्थापना के कारण इसको 'भक्तामरमण्डल पूजा' कहते हैं। इस पूजा की भूमिका का प्रथम पद्य उदाहरणार्थ इस प्रकार हैं : श्रीमन्तमानम्य जिनेन्द्रदेवं परं पवित्रं वृषभं गणेशम् । स्याद्वादपारान्निधिचन्द्रविम्बं भक्तामरस्यार्चनमात्मसिद्धये ॥
इस पूजा की भूमिका में पूजाकारक के गुण तथा योग्यता कैसी होनी चाहिए इसका वर्णन है, पूजा करानेवाले प्रतिष्ठाचार्य के लक्षणों का वर्णन है, पूजा के वांग्य स्थान एवं मण्डप का वर्णन, पूजा के मण्डल का वर्णन, पूजा की विधि और पूर्ण
संस्कृत और प्राकृत जैन पुजा-काव्यों में छन्द... 179