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________________ तथा स्वर्णदीपकों से हम पूजा करते हैं। यहाँ स्वभावोक्ति अलंकार से शान्तरस प्रकाशित होता है। पद्य सं. 12 और उसका भावसौन्दर्य : ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं, सूक्ष्मस्वभावपरमं यदनन्तवीर्यम् । कधिकक्षदहनं सुखसस्यवीजं, वन्दे सदा निरुपम वरसिद्धचक्रम् ॥ इस पद्य में स्वभावोक्ति, रूपक अलकारां की संसृष्टि तथा शान्तरस है। जयमाला का पद्य सं. 17 और उसका सारसौन्दर्य : निवारितदुष्कृतकर्मविपाश, सदामल केवलकेलिनिवास। भवोदधिपारग शान्त विमोह! प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥' इस पूजा के अन्त में 25 छन्द का सारांश इस प्रकार है-इस प्रकार जो मनुष्य असम (अनुपम) अर्थात् संसारी आत्माओं से भिन्न विशुद्ध आत्मस्वरूप, निर्मल चैतन्य चिह्न से शोभित, परपदार्थों की परिणति से रहित, पद्मनन्दि आचार्य द्वारा बन्दनीय, सम्पूर्ण गुणों के मन्दिर और विशुद्धसिद्ध समूह का स्मरण करता है, नमस्कार करता है तथा स्तुति करता है-वह मनुष्य मुक्ति का अधिकारी होता है। इस पद्म में अनुप्रास और स्वभावोक्ति अलंकार, शान्तरस है एवं भक्ति का फल दर्शाया है। सिद्धपूजा (भावाष्टक) इस भावाष्टक में द्रव्य पूजा का लक्ष्य नहीं रखा गया है किन्तु भावात्मक द्रव्य के अर्पण से सिद्धों के गुणों का स्तवन किया गया है। इस भाव-पूजा के छन्दों के प्रथमार्थ में भावरूप द्रव्य का वर्णन है और द्वितीय अर्थ छन्द में सिद्धभगवान् के गुणों का स्तवन है। इस भाव-पूजा के आठ श्लोक द्रुतविलम्बित छन्द में रचित है, अन्त का नक्म श्लोक शार्दूलविक्रीडित छन्द में रचित है, कुल ५ श्लोक हैं। उदाहरणार्थ जलद्रव्य अर्पण करने का प्रथम श्लोक और उसका सौन्दर्य इस प्रकार है : निजमनोमणिभाजनभारया, समरसैकसुधारस धारया । सकलबोधकलारमणीयकं, सहजसिद्धमहं परिपूजये ।। इस पद्य में रूपकालंकार के द्वारा शान्तरस की शीतल धारा प्रवाहित होती है। अनुप्रास नामक शब्दालंकार से पद्य के पढ़ने में ही भक्तिरस झलकता है। जल अर्पण करने का मन्त्र ओं ही अनन्तज्ञानादिगुणसम्पन्नाय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्मणामीति स्वाहा। 1. ज्ञानपीठ पूजांजलि. पृ. 17। 1710 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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