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________________ तृतीय अध्याय संस्कृत और प्राकृत जैन पूजा-काव्यों में छन्द, रस, अलंकार जैन पूजा-काव्य से सम्बन्धित अनेक विषयों पर विवेचन के उपरान्त अब उसकी प्रवृत्ति (पद्धति) पर विचार किया जाता है। पहले कयन कर आये हैं कि पूजा दो प्रकार की मुख्यतः होती है-(1) भावपूजा, (2) द्रव्यपूजा। मुनिराज, साधु-महात्माओं के लिए भावपूजा की प्रधानता होती है, अभ्यासरूप में गृहस्थ (श्रावक) भी कर सकते हैं जो कि श्रावक अपनी धार्मिक साधना उच्च बनाना चाहते हैं। भावपूजा के छह प्रवृत्तिरूप होते हैं-(1) शुद्ध आत्मा, (2) तीन प्रदक्षिणा, (५) कायोत्सर्ग (खड़े होकर चारों दिशाओं में नव-नव बार नमस्कार मन्त्र पढ़ना), (4) तीन निषया (बैटकर आलोचना करना), (5) चार शिरोनति (प्रत्येक दिशा में एक-एक नमस्कार करना), (6) आवर्त-(प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवर्त करना)ये छह कृतिकर्म (पूजा के भावरूप अंग) भी कहे जाते हैं। इन पद्धतियों से मन तथा इन्द्रियों का वशीकरण, आत्मशुद्धि, आसन लगाने में दृढ़ता और ध्यान में दृढ़ता होती है। इसी विषय को आर्यिका श्रीविमलमति माता जी ने अपने संग्रहग्रन्थ में कहा है : स्वाधीनता परीतिस्त्रची निषधा त्रिवारमावर्ताः । द्वादशचत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोढेष्टम् ॥ प्राचीनकाल में द्रव्य पूजा की छह पद्धति देखी जाती थी जो शास्त्रों में प्रसिद्ध हैं-(1) प्रस्तावना-जिनेन्द्रदेव का गुणानुवाद करते हुए अभिषेक विधि करने की प्रस्तावना करना प्रस्तावना है। इसी को प्रारम्भिक क्रिया का संकल्प करना कहते हैं। (2) पुराकर्म-सिंहासन के चारों कोणों पर जल से भरे हुए चार कलशों की स्थापना करना। (३) स्थापना-पूजा शास्त्र विधि के अनुकूल सिंहासन पर श्री जिनेन्द्रदेव को स्थापित करना। (4) सन्निधापन-ये साक्षात् जिनेन्द्रदेव हैं, यह सिंहासन मेरुपर्वत है, जलपूर्ण ये कलश क्षीरसमुद्र के जल से पूर्ण हैं, हम इन्द्र हैं ।. देववन्दनाटिसंग्रह, सं. आर्यिका विमलापति, प्र.-श्री महावीर जी, सन् 1963, पृ. ।। 152 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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