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________________ महावीरपर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों के मोक्ष कल्याणक का वर्णन किया गया है। चौबीस तीर्थंकरों ने जिन-जिन स्थानों से मुक्ति प्राप्त की हैं उन उन पवित्र स्थानों को निर्वाण क्षेत्र कहते हैं। चौबीस तीर्थंकरों से अतिरिक्त जो आचार्य, उपाध्याय - ऋषि - महात्मा जिन-जिन स्थानों से मुक्ति को पधारे हैं उन क्षेत्रों को सिद्ध क्षेत्र कहते हैं। और जिन क्षेत्रों में तीर्थंकरों के प्रारम्भ के चार कल्याणकों के उत्सव मनाये गये हैं तथा अन्य तपस्वी ऋषि महात्माओं के अतिशय या चमत्कार हुए हैं वे अतिशय क्षेत्र कहे जाते हैं ये सर्व ही क्षेत्र वर्तमान में तीर्थक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनकी बन्दना यात्रा कर मानव अपने जन्म को सफल करते हैं। चौबीस तीर्थकरों के वंश तथा सिंह विशेषों का वर्णन इस भक्ति पाठ में है। इस निर्वाण भक्ति के रमणीय श्लोकों में से एक सरस श्लोक के तात्पर्य का अनुभव करें और दूसरों को भी करावें- जिस प्रकार इक्षु ( ईख ) के रस से निर्मित गुड़ के रस में बनाया गया आटे का हलवा या लड्डु अधिक स्वादिष्ट और मधुर होता हैं। उसी प्रकार तीर्थंकर गणधर अरहन्त आदि परमदेव, ऋषि आदि महापुरुष जहाँ-जहाँ तप करते हैं या दैनिकचर्या का आचरण करते हैं वे सब स्थान इस विश्य के प्राणियों को सदा अधिक पवित्र करनेवाले अथवा कल्याण करनेवाले तीर्थक्षेत्र बन जाते हैं। जैसे कर्मशत्रुओं को जीतनेवाले युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ये तीनों पाण्डव शत्रुंजय पर्वत से मोक्ष पधारे। नकुल तथा सहदेव सबसे उच्च स्वर्ग में गये । समस्त परिग्रह से रहित बलदेव, लव एवं कुश आदि तुंगीगिरि नामक पर्वत से निर्वाण को प्राप्त हुए । शत्रुकर्म विजेता सुवर्णभद्र आदि ऋषिराज पावागिरि पर्वत के निकट चलनानद के तट से तपस्या करते हुए मुक्ति पधारे। इसी प्रकार द्रोणगिरि, कुण्डलगिरि, मुक्तागिरि (मेढ़गिर ), वैभारपर्वत, सिद्धवरकूट, ऋष्यदि, विपुलाचल बलाहक, विन्ध्यपर्वत, सह्याद्रि, हिमवान् दण्डात्मक, गजपन्थ आदि। इन सब निर्वाण क्षेत्रों का वर्णन इस निर्वाणभक्ति में किया गया है अतः यह नाम सार्थक है। ये सब तीर्थ क्षेत्र विश्व में प्रसिद्ध हैं । श्लोक यह है इक्षोविकाररसपूक्तगुणेन लोके, पिष्टोधिकांमधुरतामुपयाति यद्धत् । तद्वच्चपुण्यपुरुषैरुषितानि नित्यं स्थानानि तानि जगतामिह पावनानि ॥ इस श्लोक में बसन्ततिलकाछन्द और उपमा अलंकार के प्रयोग से शान्तरस की वर्षा होती है। नन्दीश्वरभक्ति - इस भक्तिकाव्य में आर्याछन्दोबद्ध साठ श्लोक हैं, अन्त में प्राकृतभाषा में रचित एक विनय गद्यकाव्य है। इस भक्तिकाव्य में तीन लोक के अकृत्रिम ( स्वाभाविक - अनादिनिधन ) मन्दिरों तथा उनमें विराजमान मूर्तियों का वर्णन 1. धर्मध्यान प्रकाश, पृ. 97, श्लोक 31 1400 जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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