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________________ ये भक्तिकाव्य प्राकृत भाषा में आठ पद्यरूप और चार गद्यरूप-इस प्रकार बारह लघुकाव्य हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं (1) तीर्थकर भक्ति, (2) सिद्धभक्ति, (3) श्रुतभक्ति, (4) चारित्रभक्ति, (5) योगिभक्ति, 16) आचार्यभाक्त, (7) निर्वाणभक्ति, (8) पंचगुरुभक्ति-ये आठ पद्यरूप लघुकाव्य हैं। (9) नन्दीश्वर भक्ति, (10) शान्तिभक्ति, (11) समाधिभक्ति, (12) चैत्यभक्ति-ये चार गद्यरूप लघुकाव्य हैं। ये सभी शान्तरस से परिपूर्ण हैं। ये नवरस स्थायीभायों के अनुसार क्रम से कहे गये हैं। इनमें शान्तरस प्रधान है क्योंकि यह स्व-परकल्याण का कारण है। जब अन्य रसों के सेवन से मानव अशान्त हो जाता है तब अन्त में वह शान्तरस से ही शान्ति को प्राप्त होता है तथा इस लोक और परलोक में स्व-परकल्याण करने का पुरुषार्थ करता है। मुक्तिमार्ग की साधना करता है, अतएव इस रस को अन्त में कहा है। अव आचार्य कुम्दकुन्द के प्राकृतकाव्यों में शान्तरस का अपूर्व प्रवाह उदाहरण के साथ सर्वप्रथम चौबीस कोकरों की भक्ति करते हुए कामास रामलायी गयी है। तीर्थकर भक्ति का एक काव्य इस प्रकार है कित्तिय बन्दियमहिमा एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा। आरोग्गणाणलाह दिन्तु समाहिं च में बोहि। सारांश-जो मेरे द्वारा कीर्तित, वन्दित और पूजित हैं, लोक में उत्तम तथा कृतकृत्य हैं। ऐसे वे चौबीस तीर्थंकर जिन भगवान् मेरे लिए आरोग्य लाभ, ज्ञान, समाधि और खोधि (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र) प्रदान करें। इस काव्य में आयांछन्द है, आत्मगुणों की विनयपूर्वक कामना से शान्तरस है। सिद्धभक्ति में शान्तरस के प्रवाह का उदाहरण जरमरणजन्मरहिया, ते सिद्धासुभत्तिजुत्तस्य। दिंतु वरणाणलाह. बुयण परियत्थर्ण परमशुद्ध।। तात्पर्य-जरा (वृद्ध दशा) मरण और जन्म से रहित वे सिद्ध भगवान्, समीचीन भक्ति से सहित मुद्दा कुन्दकुन्द के लिए विद्वानों के द्वारा प्रार्थित तथा परमशुद्ध उत्कृष्ट ज्ञान को प्रदान करें। इस काव्य में आर्याछन्द में भक्तिपूर्वक ज्ञान की इच्छा होने से शान्तरस का प्रवाह हैं। श्रुतभाक्त में शान्तरस की शीतल सुधा का उदाहरण एव मए सूदपवरा भत्तीरारण सत्या तच्या। सिग्घं में सुइलाहं जिणवर वत्तहा पयच्छतु। भावार्थ - इस प्रकार पने भक्ति के राग से बारह अंग रूप श्रेष्ठ श्रुतज्ञान का स्तयन किया। जिनवर श्री ऋषभनाथ तीर्थकर हमें शीघ्र ही श्रुतज्ञान से पवित्र जैन पूजा-काव्य के विविध प :: 131
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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