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हेमचन्द्र को पाश्र्वनाथ के विवाहित होने की कलाना त्यो नहीं। कल्पसूत्रकार और उसका मनुसरण करने वाले पानायों को प्राचीन परम्परागत मान्यता के विरुद्ध महाबीर प्रादि को विवाहित होने की नवीन कल्पना क्यों करनो पड़ी, यह अवश्य प्रमुसन्धान का विषय है। संभवतः उन्हें इस विषय में बौद्ध ग्रन्थों में वणित बद्ध चरित्र मनूकरणीय प्रतीत हुआ हो।
इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में महावीर का ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ में प्राना, फिर इन्द्र की प्रामा से नेगमेपी देव द्वारा उस गर्भस्थ शिशु को त्रिशला के उदर में पहुंचाना विज्ञान की लाख दुहाई देने पर भी अति को रुचता नहीं है । श्वेताम्बर विद्वान् पं० सुखलाल जी संघवी इस कल्पना को कृष्ण के गर्भपरिवर्तन की कल्पना का अनुकरण मानते हैं।
दिगम्बर परम्परा में यह मान्यता है कि तीर्थकर दीक्षा लेने पर केवल ज्ञान की प्राप्ति तक पर्यात छदमस्थ काल में मौन रहते है। किन्तु श्वेताम्बर मान्यता ऐसी नहीं है। यहाँ महावीर को छदमस्थ काल में चण्डकौशिक सर्प को उपदेश देते हुए बताया है।
इन मान्यता - मेदों का उल्लेख इसलिए किया गया है जिससे तीर्थंकरों के सम्बन्ध में सामान्य नियमों की एकरूपता दृष्टि में पा सके। प्रस्तुत ग्रन्थ में, तीपंकरों के सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में जहाँ मान्यता भेद है, उसका निष्पक्ष दृष्टि से उल्लेख किया गया है।
प्रत्येक तीर्थकर के मुनि संघ में सात प्रकार के संघ होते है-पूर्वधर, शिक्षक, प्रवधिज्ञानी, केवली. विकिया निधारी, विपूल मति और वादी। इसी सप्त समाचार पर रोक तर मुनियों की संख्या इस ग्रन्थ में दी गई है।
एक तीर्थकर का तीर्थकाल मागामी तीर्थंकर के तीर्थ-स्थापन तक रहता है। इस प्रकार धर्म की परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रहती है। किन्तु इस हुण्डावसपिणी के काल-दोष से सात काल ऐसे आये, जब धर्म की ग्यच्छित्ति हो गयी। ये सात समय सुविधिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, मनसनाथ पौर धर्मनाप के तीर्थकाल में माये । शेष तीर्थंकरों के काल में धर्म की परम्परा निरन्तर चलती रही। इसका कारण यह था कि उस समय किसी ने दीक्षा नहीं ली थी । उक्त सात तीर्थों में कम से पावपल्य, प्रसंपल्य, पौनपल्य, पल्य, पौन पल्य, पल्य, और पाव पल्य प्रमाण धर्म-तीर्थ का उच्छेद रहा।
अन्तिम निषेवन और आभार प्रदर्शन प्रस्तत ग्रन्थ समय की मावश्यकता का परिणाम है। समाज में बहुत समय से इस प्रावश्यकता का तीव्रता से पनुभव किया जा रहा था। महपावश्यकता थी तीर्थंकरों का चरित्र पौराणिक शैली से उधार कर पायनिक परिप्रेक्ष्य, भाषा और शेली में निबद्ध किया जाय किन्तु शैली बदलने पर भी उसके मूल रूप प्रर्यात मौलिक परिख को और विशेषताओं को सुरक्षित रक्खा जाय। इसके साथ-साथ यदि उनके व्यक्तित्व का समर्थन जैनेतर ग्रन्थों. इतिहास मोर पुरातत्व से किया जा सके तो किया जाए। ऐसे परित्र-मन्य से सीपंकरों का सही परिचय पाठकों को मिल सकेगा।
परम पूज्य प्राचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराण ने इस प्रकार के प्रस्थ की पावश्यकता बताते । मुझे इसे तैयार करने का अवसर प्रदान किया। इस कृपा के लिए मैं पूज्य भाचार्य श्री का ऋणी हूँ। जो कुछ भी और जिस रूप में भी यह ग्रन्थ तैयार हो सका है, वह सब पाचार्यश्री के प्राशीर्वाद मा परिणाम है। उन्होंने न केवल मुझे यह अवसर प्रदान शिया, बल्कि उन्हीं की कृपा से इसके प्रकाशन के सब साधन जुट सके। माचावी की मेरे ऊपर सदा से कृपा रही है । यह मेरी परम सौभाग्य है । उनके चरणों में मेरी बार-बार नमोस्त।