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________________ ૬૨ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास ७. भगवान मुनि-दशा में मुनि अवस्था में भगवान ने कठोर साधना का अवलम्बन लिया। उनका अधिकांश समय ध्यान में व्यतीत होता था। वे अट्ठाईस मूल गुणों का दृढ़तापूर्वक पालन करते थे। अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, प्रचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत, अपरिग्रह महाव्रत ये पंच महाव्रत, ईयर्या समिति, भाषा समिति, ऐषणा भगवान को कठोर समिति, पादान निक्षेपण समिति, उत्सर्ग समिति ये पांच समितियां, स्पर्शनेन्द्रिय निरोध. साधना रसनेन्द्रिय निरोध घ्राणेन्द्रिय निरोध, चक्ष इन्द्रिय निरोध, कर्गन्द्रिय निरोध ये पंचेन्द्रिय निरोध, सामायिक, स्लवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग ये छह प्रावश्यक, केशलोंच, भूमिशयन, अदन्तधावन, नग्नत्व, अम्नान, खड़े होकर भोजन करना और एक बार ही दिन में भोजन करना ये साध के अट्ठाईस मूल गुण बताये हैं । भगवान ने छह माह तक निराहार रहकर अनशन तप का प्राचरण किया। किन्तु इसका भगवान के शरीर पर किचित भी प्रभाव नहीं पड़ा । बल्कि इससे उनका तेज और भोज अधिक उज्वल हो गया। उनके अतिशय तेज के कारण सारा वन-प्रान्त प्रकाशित रहता था। भगवान के तप और तेज का ही यह अतिशय था कि जाति विरोधी जीव भी भय और क्रूरता का त्याग करके बड़े प्रेम से वहां आकर बैठते और शान्ति का अनुभव करते थे। उस वन-प्रदेश में कैसा अद्भुत दृश्य दीख पड़ता था- सिंह, हरिण परस्पर किलोल करते थे । चमरी गाय की पूंछ के बाल कंटीली झाड़ियों में उलझ गये और बाघ ने पाकर अपने पंजों से उन्हें छुड़ाया। अबोध हरिण-शिशु शेरनी का दूध पी रहे थे और सिंह-गावक हिरणी को अपनी माता समझकर उनके स्तनों से दुग्ध पान कर रहे थे। मत्त गज सरोवरों पर जाते और सूड में जल भर लेते तथा पुष्पित कमल लाते। कमल-पुष्प भगवान के चरणों में चढ़ा देते और मुंड में भरे हुए जल से भगवान के चरणों का अभिषेक करते । प्रकृति के सभी तत्त्व जैसे भगवान की सेवा के लिये होड़ कर रहे थे । सिद्धार्थक वन के सभी वृक्ष पुष्पों से मुके जा रहे थे। भुककर वृक्ष भगवान के अपर पुष्प-वर्षा कर रहे थे। पुष्पों का पराग लेकर भ्रमर उड़ते और प्राकर भगवान के ऊपर बिखेर जाते ! वायु पुष्प-पराग को लेकर मचलता डोलता। वसन्त के भ्रम में कोयल मोर पपीहा मधुर गान गाते । पक्षी चहचहाते । बादल आकर भगवान के ऊपर शीतल छाया करते। भगवान के दिव्य तेज के प्रभाव से बह वन एक पाश्रम बन गया था। भगवान छह माह तक एक ही स्थान पर ध्यानारूद रहे । इतने समय में उनके बाल बढ़ गये और जटायें बन गई। यद्यपि तीर्थकरों के नख और केश नहीं बढ़ते। किन्तु ऋषभदेव के सम्बन्ध में सर्वत्र इस प्रकार के उल्लेख मिलते हैं कि उनकी जटायें बढ़ गई। प्राचार्य जिनसेनकृत 'मादि पुराण' में इस प्रकार का भगवान को जटायें उल्लेख इस सम्बन्ध में मिलता है 'संस्कार बिरहात् केशा जटीभूतास्तदा विभोः । नूनं तेऽपि तप:क्लेशमनुसोढ़ तथा स्थिताः।। मुने घिन अटा दूरं प्रसस्त्र : पवनोखताः। ध्यानाग्निनेष तप्तस्य जीवस्वर्णस्य कालिकाः ।।१५। ७५-७६॥ अर्थात उस समय भगवान के केश संस्कार रहित होने के कारण जटामों के समान हो गये थे। गौर वे ऐसे मालम पड़ते थे मानो तपस्या का क्लेश सहने के लिये ही वैसे कठोर हो गये हों। वे जटायें वायू से उड़कर महामनि भगवान ऋषभदेव के मस्तक पर दूर तक फैल गई थीं। वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो ध्यान रूपी अग्नि से तपाये हुए जीव रूपी स्वर्ण की कालिमा ही हो। इसी प्रकार प्राचार्य रविषेण ने 'पद्म पुराण' में भगवान की जटायों का वर्णन करते हुए लिखा है 'वासोद्धृता जटास्तत्र रेजुराकुलमूर्जयः। धूमाल्य इव सध्यान पहिसरतस्य कर्मणः ।।३।२६८ ॥
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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