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________________ ऋषभदेव का वैराग्य और दीक्षा ५१ निम्न भांति कहा है हुए इसी प्रकार प्राचार्य रविषेण ने भी 'प्रयाग' नाम की प्रसिद्धि का कारण बताते प्रजाग इति देशोऽसौ प्रजाभ्योऽस्मिन् गतो यतः । प्रकृष्टो वा कृतस्यागः प्रयागस्तेन कीर्तितः । पद्मपुराण ३।२६१ —भगवान ऋषभ देव प्रजा अर्थात् जन समूह में दूर हो उस उद्यान में पहुंचे थे, इसलिए उस स्थान नाम 'प्रजाग' प्रसिद्ध गया अथवा भगवान ने उस स्थान पर बहुत बड़ा याग अर्थात् त्याग किया था, इसलिए उस स्थान का नाम प्रयाग भी प्रसिद्ध हो गया । इस प्रकार भगवान के महान त्याग का स्थान होने से जनता उस स्थान को प्रयाग कह कर पूजने लगी और वह एक परम पावन तीर्थ क्षेत्र बन गया । तपोभ्रष्ट मुनिवेशी मरीचि का विद्रोह अंगुल का अंतर था। भगवान शरीर से भी ममत्व का परित्याग करके और मन-वचन-काय को एकाग्र करके छह माह के उपवास की प्रतिज्ञा लेकर कायोत्सर्ग ग्रासन से विराजमान हो गए। उस आसन से खड़े हुए भगवान का तेज पुंज चारों ओर विकीर्ण हो रहा था। खड़े हुए, हाथ नीचे को लटके हुए, भर्षोन्मीलित नासाग्र दृष्टि, दोनों पैरों के अग्रभाग में बारह अंगुल का तथा एड़ियों में चार भगवान की देखा देखी मुनि चार हजार राजा कायोत्सर्ग आसन में खड़े हो गए। भगवान तो निश्चल, निष्पन्द और अनासक्त भाव से ध्यानलीन थे। किन्तु वे कच्छ, महाकच्छ आदि राजा लोग एक-दो दिन बाद ही भूख प्यास से व्याकुल होने लगे। उन्हें खड़े रहने में भी कष्ट होने लगा । व्याकुल होकर वे बार बार इधर उधर इस आशा में देखने लगे कि हमारे स्त्री-पुत्र या सेवक भोजन लेकर आने वाले होंगे। किन्तु कोई भी भोजन लेकर नहीं श्राया । उन्हें यह भी श्राशा थी कि भगवान २-४ दिन बाद स्वयं भी भोजन करेंगे और हमें भी भोजन करायेंगे। किन्तु यह प्राशा भी पूर्ण नहीं हुई । न जाने किस कार्य के उद्देश्य से भगवान इस प्रकार खड़े हुए हैं। राजाओं के जो सन्धि विग्रह श्रादि छह गुण होते हैं, उनमें खड़े रहना भी कोई गुण है, ऐसा तो हमने कभी नहीं पढ़ा। ऐसा लगता है, भगवान तो निराहार रहकर प्राण छोड़ने के लिए उत्सुक हैं, किन्तु हम तो इस प्राणघाती तप से आजिज था गये। इसलिए भगवान जब तक अपना यह ध्यान समाप्त नहीं करते, तब तक हम लोग इस बन में ही उत्पन्न होने वाले कन्द मूल फल खाकर अपने प्राण धारण करेंगे । इस प्रकार तथाकथित मुनियों में अनेक लोग भगवान के चारों ओर एकत्रित हो गये और यह श्राशा करने लगे कि भगवान हमारी दशा को देखकर हम पर दया करेंगे। अगर हम अभी भगवान को छोड़कर अपने अगर हम भगवान के समान निराहार रहते हैं तो हमारे प्राण. समझ नहीं पड़ता था । घर जाते हैं तो महाराज भरत हम पर कुपित होंगे। चले जायेंगे ! बेचारे बड़े संकट में थे, क्या करें, कुछ ऐसी स्थिति में कुछ लोग भगवान से कहकर और कुछ लोग बिना कहे ही वहाँ से ग्रन्यत्र चले गये और तालाबों का जल पीने लगे, कन्द मूल फल खाने लगे। ऐसा करते हुए देखकर वन देवता ने उन्हें समझाया - यह दिगम्बर मुनि वेष अत्यन्त पवित्र है। इस वेष को लांछित मत करो। अपने हाथों से फल मत तोड़ो, नदी-सरोवर में से जल भत पीओ । वनदेवता के द्वारा इस प्रकार भर्त्सना करने पर उन्हें दिगम्बर वेष में रहते हुए मुनि धर्म के विरुद्ध कोई कार्य करने का साहस नहीं हुआ । अतः कुछ लोग बल्कल पहनने लगे, किन्हीं ने लंगोटी धारण करके भस्म लगा ली, कोई अटाधारी बन गये, कुछ एकदण्डी और त्रिदण्डी बन गये । और झोंपड़ी बनाकर वहीं बन में रहने लगे । के ऋषभदेव को ही अपना भगवान मानते थे और जल, फल-फूलों से उनकी पूजा करते थे । इन भ्रष्ट मुनियों में कच्छ, महाकच्छ और मरीचि ( भरत के पुत्र ) ने सबसे अधिक विद्रोह का भण्डा उठाया। मरीचि ने तो एक स्वतन्त्र धर्म की ही घोषणा कर दी। उसने भगवान के विरोध में नाना मिथ्या मान्यताम्रों की कल्पना की और उनका प्रचार किया । यह कितने भाश्चर्य की बात है कि भगवान ने सत्य धर्म की देशना भी नहीं दी, उससे पूर्व ही उनके ही पौत्र ने संसार में मिथ्या धर्म का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। उन भ्रष्ट तपस्वियों में से अनेक लोग मरीचि के परिकर में प्राजुड़े। सबके मन में भगवान ऋषभदेव के प्रति हार्दिक श्रद्धा थी, किन्तु सब अनजाने ही परिस्थितियों से दराध्य होकर भगवान के विरुद्ध विद्रोह में सम्मिलित हो गये ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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