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________________ ऋषभदेव का वैराग्य श्रीर दीक्षा सुराष्ट्र और नर्मद ये सब पश्चिम दिशा में स्थित थे । दशाक, free, त्रिपुर, ग्रावर्त, नैषध, नेपाल, उत्तमवर्ण, बंदिश, श्रन्तप कौशल, पत्तन और विनिहात्र ये देश विन्ध्याचल के ऊपर स्थित थे । ४६ भद्र, वत्स, विदेह, कुश, भंग, सैतव, और वज्रखण्डिक ये देश मध्य देश के आश्रित थे। भगवान ने पुत्रों को राज्य देकर अभिनिष्क्रमण की तैयारी की । देवों ने क्षीरसागर का जल लाकर भगवान का अभिषेक किया, उत्तम गन्ध से लेपन किया, दिव्य वस्त्राभूषण और मालाओं से भगवान का श्रृंगार किया। उस समय अयोध्या नगरी में दो महान हर्षोत्सव हो रहे थेभगवान का दीक्षा कल्याणक और भरत बाहुबली का राज्याभिषेक । एक ओर देवशिल्पी भगवान को में ले जाने के लिए सुदर्शना पालकी का निर्माण कर रहे थे, इन्द्राणी स्वयं रत्नचूर्ण से चौक पूर रही थी। दिक्कुमारियाँ मंगल द्रव्य सजाए खड़ी थीं, वेत्र लोग भगवान के चरणो में पुष्पांजलि क्षेपण कर थे, अप्सराएं नृत्य कर रही थीं, देव नाना प्रकार के बाजे बजा रहे थे। दूसरी ओर शिल्पी मण्डप बनाने में जुटे हुए थे, माता नन्दा, सुनन्दा स्वयं सुन्दर चौक पूर रही थीं, सौभाग्यवती स्त्रियों मंगल कलय और मंगल द्रव्य लिए हुए खड़ी थीं, पुरवासी आशीर्वाद और मंगल कामना के शेपात फेंक रहे थे, वारांगनायें नृत्य कर रही थीं, अन्तःपुर को स्त्रियाँ मंगलगान कर रही थीं। पौरजन दोनों ही उत्सवों में हर्ष और मोद से भाग ले रहे थे । भगवान पुत्रों को राज्य सौंपकर निराकुल हो गए थे। अतः श्रपने माता-पिता मरुदेवी और नाभिराज तथा अन्य परिवारीजनों से पूछ कर सुदर्शना पालकी की थोर बढ़े। पालकी में सढ़ते समय भगवान को इन्द्र ने हाथ का सहारा दिया। भगवान जब शिविका में आरूढ़ हो गए, तब उसे उठाने के लिए इन्द्र आगे बढ़े। उधर मनुष्यों ने भी पालकी को उठाना चाहा। इस विषय पर देव और मनुष्यों में एक रोचक विवाद उत्पन्न हो गया। विवाद था अधिकार के प्रश्न पर । पालकी को कौन पहले उठावे - देव या मनुष्य ? देवों का पक्ष था- भगवान जब गर्भ में आए, उससे भी छह माह पूर्व से हम लोग भगवान की सेवा में तत्पर हैं। जन्म के समय हम भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले गए। वहां हमने भगवान का अभिषेक किया। भगवान के अशन, वसन, अलंकार हम ही जुटाते रहे। तब इस अवसर पर भगवान की सेवा का प्रथम अवसर पाने का अधिकार हमारा है। मनुष्यों का तर्क था कि तुम लोगों को हमने भगवान की सेवा का सदा श्रवसर दिया, किन्तु आखिर भगवान हमारी ही जाति मनुष्य जाति के हैं ! उनकी सेवा के इस अवसर को हम तुम्हें नहीं दे सकते । भगवान का प्रभिनिष्क्रमण बात भगवान तक पहुँची । देव और मनुष्यों ने भगवान के पास जाकर फरियाद की और भगवान से निर्णय मांगा। सुनकर तीन ज्ञान के धारी भगवान मुस्कराए और बोले – 'तुम दोनों ही अपने-अपने स्थान पर सही कह रहे हो, किन्तु मेरी पालकी को उठाने का प्रथम अधिकार उनको है जो मेरे समान संयम धारण कर सकें ।' भगवान के न्याय में किसी को सन्देह नहीं था। दोनों ने सिर झुकाकर भगवान का निर्णय मान्य किया । देव लोग एक श्रोर हट गए। राजा लोगों ने संयम धारण करने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने ही सर्व प्रथम पालकी को उठाया और सात पग ले गए। फिर विद्याधर लोगों ने सात पग तक पालकी उठाई। इसके पश्चात् इन्द्रों और देवों ने पालकी को उठाया और ग्रानन्दपूर्वक ले चले । इस मंगल अवसर पर सुगन्धित शीतल पवन बह रहा था। देव लोग आकाश से सुगन्धित पुरुषों की वर्षा कर रहे थे और दुन्दुभी नाद कर रहे थे । इन्द्र दोनों ओर खड़े होकर चमर ढोल रहे थे । इन्द्र की आज्ञा से देव लोग घोषणा करते चल रहे थे – 'जगद्गुरु भगवान ऋषभनाथ कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने श्रभिनिष्क्रमण कर रहे हैं । प्रप्सरायें नृत्य कर रही थीं। किन्नरियां गीत गा रही थीं । जयजयकार और वाद्योंसे तुमुल कोलाहल होरहा था । भगवान की पालकी के पीछे यशस्वती और सुनन्दा श्रादि रानियाँ राजसी परिवेश को छोड़कर सादा येष में चल रही थीं। महाराज नाभिराज मरुदेवी के साथ भगवान का तप कल्याणक उत्सव देखने के लिए चल रहे थे । भरत मादि राजा मोर भाई, परिजन और पुरजन भी पूजा की सामग्री · लेकर भगवान के पीछे-पीछे चल रहे थे। कुछ दूर जाकर वृद्ध जनों ने रानियों और स्त्रियों को मागे जाने से रोक दिया और वे शोकाकुल हृदय से वहाँ से नगर को लौट गई। किन्तु यशस्वती, सुनन्दा श्र भगवान की दोक्षा
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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