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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास सूख का पिण्ड है, ज्ञान-दर्शन-वीर्य की अनन्त विभूतियों का स्वामी है। मेरा अपना साम्राज्य नगरों पर नहीं, मनुष्यों पर भी नहीं, इस बाह्य वैभव पर भी नहीं है। मेरा साम्राज्य अगोचर है। मेरा आत्मा अक्षय लक्ष्मी का भण्डार है, अनन्त गुणों का आगार है। ये सारे भौतिक वैभव क्षणिक हैं, जिस शरीर के लिए ये वैभव संचय किये वह क्षणिक है, उन वैभवों से जिस सुख की कल्पना की वह क्षणिक है। चिरस्थायी है मेरी प्रात्मा, मेरी प्रात्मा की विभूति, मेरी प्रात्मा के गुण। देव पर्याय में सुख समझता है यह अज्ञ प्राणी, किन्तु नीलांजना हमारे देखते ही देखते मृत्यु को प्राप्त हो गई 1 इन्द्र ने यह कपट नाटक किया था और जान-बूझकर नीलांजना का नत्य कराया। निश्चय ही इन्द्र ने यह कार्य हमारे हित के लिए किया था। इस रूप को धिक्कार हैं, ! इस राज्य-भोग को धिक्कार है ! इस चंचल लक्ष्मी को विकार ! भगवान के मन में इस प्रकार निर्वेद की भावनायें पनप रही थीं। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब मुझे संसार से मुक्ति के लिए प्रयत्न करना है। इन्द्र ने भगवान के अन्तःकरण की सारी भावनायें जान लीं। उसी समय भगवान की बैराग्य-भावना की सराहना करने और उनके तप-कल्याणक की पूजा करने के लिए ब्रह्म नामक पांचव स्वर्ग के अन्त में पाठों दिशाओं में रहने वाले सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, प्रध्यावाध और अरिष्ट नामक आठ प्रकार के लोकासिक देव ब्रह्मलोक से उतरे। आकर उन्होंने पारिजात पूष्पों से भगवान के चरणों की पूजा की और उनकी निर्वेद भावना की सराहना करते हुए इस प्रकार स्तुति को-लोग प्रापको जगत का पालन करने वाला ब्रह्मा मानते हैं, कर्म रूपी शत्रुओं को जीतने वाला विजेता मानते हैं, धर्म रूपी तीर्थ का नेता मानते हैं और सबकी रक्षा करने वाला जगद्गुरु मानते हैं। आप स्वयं बुद्ध हैं। पापको प्रतिबोध दे सके, ऐसी सामर्थ्य किसमें है ? आप प्रथम गर्भ कल्याणक में सद्योजात (शीघ्र अवतार लेने वाले) कहलाये । द्वितीय जन्म क में रामता (सुन्दरता) को प्राप्त हुए। और तृतीय तपकल्याणक में अघोरता (सौम्यता) को धारण कर रहे हैं। भव्यजीव रूप चातक मेघ के समान आपको ओर टकटकी लगाकर देख रहे हैं। हे देव प्रनादि प्रवाह से चला आया यह काल अब आपके धर्मामृत की वर्षा के उपयुक्त हुआ है। पाप धर्म की सृष्टि कीजिये । प्रभो ! आप उठिये और कर्म शत्रों का संहार करकं मोक्ष मार्ग को प्रशस्त कीजिये। वे लोकान्तिक देव अपने इतने ही नियोग से कृतकृत्य होकर अपने स्थान को चले गये। ये देव तीर्थकरों के तप कल्याणक से पूर्व उनकी वैराग्य-भावना की सराहना करने के लिये ही ब्रह्मलोक से आते हैं और तीर्थकर की स्तुति करके चले जाते हैं। भगवान ने दीक्षा ग्रहण करने से पहले अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत का राज्याभिषेक किया और उन्हें अयोध्या का राज्य प्रदान किया। और युवराज पद पर राजकुमार बाहबली को अभिषिक्त किया। पुत्रों को राज्य- इन दोनों पुत्रों के अतिरिक्त शेष पुत्रों को विभिन्न देशों के राज्य दिये । प्राचीन साहित्य में विभाजन इस प्रकार के उल्लेख देखने में नहीं पाये कि किस राजकुमार को किस देश का राज्य दिया गया । संभवतः प्राचीन साहित्य लेखकों ने इस बात को विशेष महत्व नहीं दिया हो। किन्तु जिन देशों के राज्य उन राजकुमारों को दिये गये, उनके नाम अवश्य उपलब्ध होते हैं । वे इस प्रकार है सूरसेन, पटच्चर, तुलिग, काशी, कोशल, मद्रकार, वृकार्थक, सोल्व, प्रावृष्ट, त्रिगत, कुशाग्र, मत्स्य, कूणीयान, कौशल्य पौर मोक ये मध्य देश थे। वाल्हीक, प्रात्रेय, काम्बोज, यवन, पाभीर, मद्रक, क्वाथतोय, शूर, बालवान, कैकय, गान्धार, सिन्धु, सौवीर, भारद्वाज, दशेरुक, प्रास्थाल और तीर्णकर्ण ये देश उत्तर को पोर स्थित थे। खड्ग, अंगारक, पौण्ड्र, मल्ल, प्रवक, मस्तक, प्राद्योतिष, बंग, मगध, मानवतिक, मलद और भार्गव ये देश पूर्व दिशा में स्थित थे। वाणमुक्त, वैदर्भ, माणव, सककापिर, मूलक, अश्मक, दाण्डीक, कलिंग, प्रांसिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिषक, पुरुष और भोगवर्धन ये दक्षिण दिशा के देश थे । माल्य, कल्लीवनोपान्त, दुर्ग, सुर्पार, कर्बुक, काक्षि, नासारिक, अगत, सारस्वत, तापस, महिम, भरुकन्या,
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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