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________________ यही विचार करके मैंने जैन इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान पं० परमानन्द जी शास्त्री से प्राचार्यों सम्बन्धी खण्ड का दायित्व स्वीकार करने के लिए अनुरोध किया। मुझे हादिक प्रसन्नता हुई, जब उन्होंने मेरे अनूरोध को स्वीकार कर लिया। __ मैंने अपनी यह योजना पूज्य प्राचार्य महाराज के समक्ष रक्खी । मुझे अत्यन्त हर्ष है कि पूज्य प्राचार्य महाराज ने भी कृपापूर्वक इस योजना से अपनी सहमति व्यक्त की और उसे तत्काल स्वीकार कर लिया। कर लिया। इस प्रकार 'जैनधर्म का प्राचीन इतिहास' नामक प्रस्तुत ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित करने की योजना बन गई। इसका प्रथम भाग तीर्थकर चरितावली सम्बन्धी है जो आपके हाथों में है तथा दूसरा भाग महावीर और उनकी संघ परम्परा से सम्बन्धित हैं जो इस ग्रन्थ के साथ ही प्रकाशित हो रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ भाग १ में प्रादि पुराण, उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण, पम पुराण, पासणाहचरिउ, प्रसग कदि कृत वर्तमान पुराण, जनेतर पुराणों तथा अनेकांत प्रादि पत्रों से सहायता ली गई है। इतिहास और पुरातत्व के लिए तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का उपयोग किया गया है । इसके लिए उनके लेखकों और सम्पादकों का मैं ऋणी हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ भाग १ में चौबीस तीर्थंकरों का चरित्र पौराणिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में निबद्ध किया गया है। प्रसंगवश उनके तीर्थ में होने वाले चालिगों, बलभद्र, नगर प्रमों और पतितारामयों का भी चरित्र दिया गया है। पाठकों की जिज्ञासा के समाधान की दृष्टि से जैन दृष्टिकोण से रामचरित और कृष्ण चरित भी विस्तार के साथ दिए गए हैं। यहाँ यह स्पष्ट करना प्रावश्यक प्रतीत होता है कि किसी महापुरुष के जीवन चरित्र पर किसी सम्प्रदाय विशेष का अथवा किसी अन्य विशेष का एकाधिकार नहीं है। ऐसा प्राग्रह करना महापुरुष की महत्ता और व्यापकता को कम करना है। महापुरुष सबके होते हैं। उनको लेकर सबको गर्व और गौरव करने का अधिकार है। इसलिए वे देश, काल, जाति और सम्प्रदाय की सीमा से अतीत होते हैं। सभी सम्प्रदायों ने अपने अपने दष्टिकोण से उनका जीवन विभिन्न भाषामों में गुम्फित किया है। इससे उनके जीवन के विविध रंग और वैविष्य उभर कर हमारे समक्ष प्रगट होते हैं। यदि कोई अपने ही रंग को यथार्थ और दूसरे रंगों को अयथार्थ कहता है तो यह उसका दुस्साहस ही कहना चाहिए । तीर्थ शव को परिभाषा तीर्थ शब्द की व्युत्पत्ति तृषातु के साथ थक् प्रत्यय लगाकर निष्पन्न होती है। इस शब्द की व्युत्पत्ति ध्याकरण की दृष्टि से इस प्रकार है-'तीर्यते । अनेन वा। तृ प्लवन-तरणयोः (भ्या०प०सै०) 'पात दि'(उ०१७) इति चक' अर्थात् जिनके द्वारा प्रथवा जिसके आधार से तरा जाय। जैन शास्त्रों में तीर्थ शब्द का प्रयोग अनेक पथों में किया गया है । यथा 'संसारान्धेरपारस्थ तरणे तीर्थमिष्यते। चेष्टितं जिननाधानां तस्योक्तिस्तीर्थसंकथा ॥ -भगवज्जिनसेनकृत मादि पुराण ४/५ अर्थात् जो इस अपार संसार-समुद्र से पार करे, उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ भगवान जिनेन्द्र का चरित्र ही होता है । अत: उसके कथन करने को तीर्थाख्यान कहते हैं। परमागम षटखण्डागम (भाग ८, १०६) में तीर्थंकर को धर्मतीर्थ का कर्ता बताया है। प्रादिपुराण (१३६) में मोक्ष-प्राप्ति के उपायभूत सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् 'चारित्र को तीचं बताया है। इसी शास्त्र में श्रेयान्सकुमार को दान-तीर्थ का कर्ता बताया है। आवश्यक नियुक्ति में चातुर्वर्ण अर्थात् मुनि, अजिका, श्रावक पौर श्राविका रूप चतुर्विध संघ अथवा चतुः वर्ण को तीर्थ माना है। प्राचार्य समन्तभद्र ने युक्त्यनुशासन ६२ में भगवान जिनेन्द्रदेव के पासन को सर्वोदय तीर्थ बताया है। इन्ही प्राचार्य ने वृहत्स्वयंभूस्तोष में मल्लिनाथ
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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