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दुर्बलता नहीं रहती, अत: वे कल्याण का उपदेश देकर प्रसंस्य प्राणियों के जीवन को धर्ममय बनाने में सफल होते है। दूसरा उपाय है दण्ड द्वारा लोक जीवन को अधर्म से विमुख करना । ऐसे व्यक्ति लोकनायक कहलाते है। इन लोक नायकों में मुख्य चक्रवर्ती, नारायण और बलभद्र होते हैं । पहला उपाय सृजनात्मक है और दूसरा निषेधात्मक । पहला उपाय है-प्रधार्मिकों के जीवन में से अधर्म दुर करके उन्हें धार्मिक बनाना अर्थात् हृदय परिवर्तन द्वारा धर्म को स्थापना जब कि दूसरा उपाय है-प्रमियों और दृष्टों को दण्ड भय द्वारा प्रधर्माचरण पोर दुष्टता से रोकना। न मानने पर उन्हें दण्डित करना। हृदय परिवर्तन का प्रभाव स्थाई होता है। प्राणी का कल्याण हृदय-परिवर्तन द्वारा ही हो सकता है, जब कि दण्ड केवल भय उत्पन्न करके अरथाई रूप से दुष्टता का निवारण कर सकता है। इसलिये धर्म नायक तीर्थकरों को मान्यता और प्रभाव सर्वोपरि है।
इन धर्मनायकों का इतिहास पुराणों और कथा ग्रन्थों में सुरक्षित है किन्तु लोक भाषा में एक ही ग्रन्थ में सब नायकों का इतिहास नहीं मिलता। इसलिये ऐसे अन्य की प्रावश्यकता अनुभव की जाती रही है, जिसमें सरल भाषा और सुबोध शैली में इन धर्मनायकों और लोकनायकों का इतिहास हो ।
प्रस्तुत ग्रन्थ-निर्माण का इतिहास उपर्यत अावश्यकता के फलस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थ 'जैन धर्म का प्राचीन इतिहास की संयोजना की गई है। इस संयोजन सुमधामसचायरन थी देशभूषण जी महाराज रहे हैं। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि भगवान महावीर के २५०० वें निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में एक ऐसे ग्रन्थ का निर्माण किया जाय, जिसमें चौवीस तीर्थकरों का पावन चरित्र गुम्फित हो । साथ ही जिसमें चक्रवतियों, बलभद्रों, नारायणों और प्रतिनारायणों का भी चरित्र हो। उन्होंने अपनी यह इच्छा मुझ पर व्यक्त की और यह कार्य भार लेने के लिये मुझे प्रादेश दिया। मैं आजकल 'भारत के दिगम्बर जैन तीर्थों का इतिहास तैयार करने में व्यस्त हैं, जो भारतीय ज्ञानपीट के तत्वावधान में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी की ओर से पांच भागों में तैयार हो रहा है । इस व्यस्तता के कारण मैंने विनप्रतापूर्वक प्राचार्य महाराज से अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी। किन्तु प्राचार्य महाराज ऐसे अन्य की आवश्यकता और उपयोगिता का तीव्रता से अनुभव कर रहे थे। उन्होंने स्वनामधन्य साहू शान्ति प्रसाद जी से अपनी यह इच्छा ध्यक्त की। साथ ही उन्होंने यह दायित्व मुझे सौंपने का आग्रह किया। मान्य साहू जी भी ऐसे ग्रन्थ को आवश्यकता से सहमत थे । प्रत: उन्होंने मुझसे यह दायित्व स्वीकार करने को प्रेरणा की। मैं इस दायित्व की गुरुता का अन्भव कर रहा था। किन्तु मैं इन सम्माननीय और कृपालु महानुभावों की प्राज्ञा की उपेक्षा करने का साहस न कर सका और मैंने बड़े संकोच के साथ यह दायित्व प्रोढ़ लिया।
___ तभी मैंने विचार किया कि यदि प्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र की तरह भगवान महावीर की परम्परा के दिगम्बर जैन प्राचार्यो, भट्टारकों, कवियों और लेखकों का भी इतिहास तैयार किया जा सके तो भगवान ऋषभ देव से लेकर अबतक का दिगम्बर जैन धर्म का यह एक साल सम्पूर्ण इतिहास हो जायगा। अब तक न तीर्थकरों भादि का चरित्र आधुनिक शैली में हिन्दी भाषा में लिखा गया और न प्राचार्यों के इतिहास से सम्बन्वित ही कोई ग्रन्थ लिखा गया। तीर्थकरों मादि के चरित्र प्राचीन पुराणों पादि में तो प्रवश्य गुम्फित मिलते हैं, किन्तु एक तो वे प्राकृत, संस्कृत या अपभ्रंश भाषा में हैं, दूसरे उनकी अपनी वर्णन शैली है, जिसमें कथानों में अवान्तर कथायें, भव-भवान्तरों का निरूपण, उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकारों के द्वारा चरित्र निरूपण और सिद्धान्तों और उपदेशों को बहुलता रहती है। आज का व्यस्त किन्तु जिज्ञासु पाठक सरल भाषा में संक्षेप में तीर्थकरों प्रादि का चरित्र पढ़ना चाहता है। इसी प्रकार जैनाचार्यो, भट्टारकों मादि के सम्बन्ध में पत्र-पत्रिकायों और पन्यों की भूमिकानों में परिचयात्मक सामग्री तो निकलती रही है, किन्तु समस्त माचार्यों मादि का परिचयात्मक इतिहास सम्बन्धी कोई एक ग्रन्थ अबतक प्रकाशित नहीं हुआ। श्वेताम्बर आचार्यों के सम्बन्ध में तो इस प्रकार के कई ग्रन्थ निकल चुके हैं, किन्तु दिगम्बर प्राचार्यों के सम्बन्ध में इस प्रकार का कोई प्रामाणिक ग्रन्थ आज तक प्रगट नहीं हुमा।