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________________ कालचक्र द्वितीय परिच्छेद भगवान ऋषभदेव ** १ भगवान ऋषभदेव से पूर्वकालीन परिस्थिति प्रकृति परिवर्तनशील है। परिणमन प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है। प्रत्येक वस्तु अपने मूल स्वरूप की धुरी पर प्रतिक्षण परिणमन करती रहती है । वह मूल स्वरूपसेकीलित या च्युत नहीं होती किन्तु उसके रूपों का नित परिणमन होता रहता है। पूर्वरूप नष्ट होता है, नया रूप उत्पन्न होता है । इस विनाश और उत्पत्ति के चक्र में भी वस्तु का मूल स्वरूप अक्षुण्ण रहता है। हर वस्तु का यही स्वभाव है । प्रकृति में भी नित नये परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों को लेकर ही यह सृष्टि चल रही है। इसका न कभी सर्वथा विनाश होता है और न कभी उत्पत्ति होती है । सदा प्रांशिक विनाश होता रहता है और उस बिनाश में से ही प्रांशिक उत्पाद होता रहता है। सृष्टि इसी विनाश और उत्पाद के चक्र में भी अपने मूल तत्त्वों को संजो कर ज्यों का त्यों रक्खे हुए है । काल का चक्र भी इसी प्रकार सदा घूमता रहता है। परिवर्तनों के इस चक्र में कहीं श्रादि है और कहाँ अन्त है, कोई नहीं कह सकता । निरन्तर घूमते रहने वाले चक्र में आदि और ग्रन्त सभव भी नहीं है। इस चक्र में काल के एक बजा, दो बजा आदि भेद भी नहीं किये जा सकते। वह तो अविभाज्य है, अखण्ड है । किन्तु व्यवहार की सुविधा के लिए हम समय का विभाग कर लेते हैं । इसी व्यवहार की सुविधा के लिए जन धर्म में काल को दो भागों में विभाजित किया गया है, जिनके नाम हैं-- श्रवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। इनमें प्रत्येक के छह-छह विभाग किये गये है- सुपमा सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा-दुषमा, दुषमा । काल के ये बारह भेद हैं। इन वार कालों का एक पूरा चक्कर कल्प कहलाता है । प्रकृति स्वयं ही एक कल्प के आधे भाग में निरन्तर उत्कर्षशील बनी रहती है । मनुष्यों की आयु, अवगाहना, रुचि, स्वास्थ्य, रूप आदि सभी में उत्कर्ष होता रहता है । यह काल उत्सर्पिणी कहलाता है। जिस काल श्रा, श्रवगाहना, बुद्धि श्रादि में होनता बढ़ती जाती है, वह अवसर्पिणी काल कहलाता है । आजकल अवसर्पिणी काल है और उसका दुषमा नामक पांचवा भाग चल रहा है । इस काल-विभाग को हम घड़ी की सुई से प्रासानी से समझ सकते हैं। घड़ी के डायल में सुई बारह के बाद छह तक नीचे की ओर जाती है और छह के बाद बारह बजे तक ऊपर की ओर जाती है। बिलकुल इसी प्रकार सर्पिणी काल में जीवों में हर बात में हीनता श्राती जाती है और उसके बाद उत्सर्पिणी काल में जीवों में हर बात में उन्नति होती है।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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