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________________ भगवान नेमिनाथ से सम्बद्ध नगर रेवतक, रेवत | हिन्दू पुराणों में रैवतक पर्वत नाम मिलता है । आचार्य जिनसे कृत 'हरिवंश पुराण' में भगवान के अन्तिम समय का वर्णन करते हुए लिखा है— 'जब निर्वाण का समय समीप आ गया तो अनेक देव और मनुष्यों से सेवित भगवान गिरनार पर्वत पर पुन: लौट आये । समवसरण की जैसी रचना पहले हुई थी, वैसी ही रचना पुनः हो गई । समवसरण के बीच विराजमान होकर जिनेन्द्र भगवान ने स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति का साधनभूल, रत्नत्रय से पवित्र और साधु सम्मत उपदेश दिया । जिस प्रकार सर्व हितकारी जिनेन्द्र भगवान ने केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद पहली बैठक में विस्तार के साथ धर्म का उपदेश दिया था, उसी प्रकार अन्तिम बैठक में भी उन्होंने विस्तार के साथ धर्म का उपदेश दिया । तदनन्तर योग निरोध करके भगवान नेमिनाथ अघातिया कर्मों का अन्त करके कई सौ मुनियों के साथ निर्वाण धाम को प्राप्त हो गये । समुद्रविजय यादि नौ भाई, देवकी के युगलिया छह पुत्र, शंकु प्रौर प्रद्युम्नकुमार आदि मुनि भी गिरनार पर्वत से मुक्त हुए । इसलिए उस समय से गिरनार प्रादि निर्वाण स्थान संसार में विख्यात हुए और तीर्थयात्रा के लिये अनेक भव्य जीव माने लगे । श्राचार्य यतिवृषभ ने 'तिलोय पण्णत्ती' में भगवान नेमिनाथ के साथ मुक्त होने वाले मुनियों की संख्या ५३६ बताई है । उत्तर पुराण में भगवान नेमिनाथ के अतिरिक्त मुक्त होने वाले मुनियों में जाम्बवती के पुत्र शंवु, कृष्ण के प्रद्युम्न और प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का नामोल्लेख करते हुए उनकी मुक्ति विभिन्न कूटों से बतलाई है। वर्तमान में भी दूसरे पर्वत से अनिरुद्ध कुमार, तीसरे से शंबुकुमार, नीचे से प्रद्युम्न कुमार और पांचवें से नेमिनाथ की मुक्ति मानी जाती है। इन टोंकों पर इन मुनिराजों और भगवान के चरण चिन्ह बने हुए हैं। प्राकृत 'निर्वाण काण्ड" में ऊर्जयन्त पर्वत से मुक्त होने वाले मुनियों के नाम और संख्या का उल्लेख करते हुए बताया है कि ऊर्जयन्त पर्वत से भगवान नेमिनाथ, प्रद्युम्न, शंबुकुमार और अनिरुद्ध के अतिरिक्त ७२ करोड़ ७०० मुनि मुक्त हुए । गजकुमार भी यहीं से मुक्त हुए थे। इतने मुनियों का निर्वाण धाम होने के कारण ही गिरनार की ख्याति मौर मान्यता सम्मेद शिखर के समान ही है । संस्कृत 'निर्वाण भक्ति में भी नेमिनाथ की मुक्ति स्थलों के रूप में ऊर्जयन्त का उल्लेख किया गया है, किन्तु उदयकी तिकृत अपभ्रंश निर्वाण भक्ति में प्राकृत निर्वाण भक्ति के समान ही वर्णन मिलता है । अपभ्रंश भाषा के 'णायकुमार चरिउ' में नागकुमार की ऊर्जयन्त यात्रा का वर्णन करते हुए ऊर्जयन्त गिरि का विस्तृत वर्णन किया गया है। उसमें लिखा है कि पहले नागकुमार ने उस स्थान की वन्दना की जहाँ नेमिनाथ ने दीक्षा ली थी ( यह स्थान सहस्रान वन है) । उपरान्त उन्होंने 'ज्ञानशिला' की वन्दना की ( यह वही स्थान था, जहाँ भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था)। इसके बाद उन्होंने अनिरुद्धकुमार, शंबुकुमार, प्रद्युम्नकुमार आदि मुनियों और नेमिनाथ के निर्वाण स्थानों की पूजा की । अन्त में उन्होंने यक्षीनिलय प्रर्थात् अम्बिका देवी के मन्दिर को देखा, जहाँ उन्होंने दीन-अनाथों को दान दिया। फिर वे वापिस गिरिनयर ( जूनागढ़ ) मा गये । इससे ज्ञात होता है कि नेमिनाथ भगवान के दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण स्थान अलग-अलग थे, जैसा कि वर्तमान में भी हैं। राजीमती ने विरक्त होकर गिरनार पर ही तप किया था। १. हरिवंश पुराण सगं ६५ श्लोक ४ से १७ २. तिलोयपण्णत्ती ४ । १२०६ 512 ३. उत्तर पुराण सर्ग ७२ श्लोक १८९ - १६१ ४. मिसामी पज्जष्णो संबुकुमारो तहेव अणिरुद्धो । वाहत्तार कोड़ीओ उज्जते सत्तसया सिद्धा ॥ ५ ॥ ५. निर्वाणभक्ति श्लोक २३ ६. उज्जत महागिरि सिद्धिपत्तु । सिरिखेमिणाहु जादव पवित्तु ॥ विसामि पज्जुर गवेवि । अणुरुदइ सहियर णमवि देवि ||३|| श्रभ्ण वि पुणु सत्त सयाइ तित्थु | वाहत्तर कोडिय सिद्ध जेत्यु |
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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