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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास बार तो उस समय, जब श्रीकृष्ण ने भरत क्षेत्र के तीन खण्डों पर विजय प्राप्त करके विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न स्थानों का राज्य प्रदान किया। उस समय उग्रसेन के पुत्र द्वार को मथुरा का राज्य दिया तथा महानेमि को शीपुर का राज्य प्रदान किया । किन्तु महानेमि की वंश-परम्परा के सम्बन्ध में जैन पुराण मौन है। संभवतः इसका कारण यह रहा हो कि शौरीपुर में इसके पश्चात् कोई उल्लेखनीय घटना घटिल न हुई हो और गौरीपुर का महत्व राजनैतिक या धार्मिक दृष्टि से नगण्य रह गया हो। दूसरी बार उस समय, जब बिहार करते हुए भगवान पार्श्वनाथ शौरीपुर पधारे। उस समय यहाँ प्रभंजन नामक राजा राज्य करता था। भगवान का उपदेश सुनकर वह उनका भक्त बन गया | ३१८ वर्तमान में यहाँ आदि मन्दिर, वरुमा मट, शंखध्वज मन्दिर ये तीन मन्दिर हैं तथा पंच मठी है । एक अहाते में यम मुनि, और धन्य मुनि की छतरियाँ बनी हुई हैं, जिनमें चरण विराजमान हैं। दो छतरियाँ खाली पढ़ी हुई हैं। एक टोंक भी बनी हुई है । उसमें कोई प्रतिमा नहीं है। चरण अवश्य विराजमान हैं, जिनकी स्थापना भट्टारक जिनेन्द्र भूषण के उपदेश से संवत् १८२८ में हुई थी। वरुश्रामठ यहाँ का सबसे प्राचीन मन्दिर है, किन्तु इसकी कुछ प्राचीन प्रतिमायें चोरो चली गई। इन मन्दिरों में सबसे प्राचीन मूर्ति उसके लेख के अनुसार संवत् १३०८ में प्रतिष्ठित हुई थी । यहाँ समाज की ओर से तथा सरकार की ओर से उत्खनन हो चुके हैं । फलतः यहाँ शिलालेख, खण्डितअखंडित जैन मूर्तियों और प्राचीन जैन मन्दिरों के प्रवशेष प्राप्त हुए थे। एक शिलालेख के अनुसार संवत् १२२४ में मन्दिर के जीर्णोद्धार का उल्लेख मिलता है । उत्खनन में प्राप्त एक मूर्ति पर संवत् १०८२ (अथवा २) का लेख है । यहाँ उत्खनन के परिणामस्वरूप सबसे महत्त्वपूर्ण जो चीज मिली है, वह है अपोलोडोटस और पार्थियन राजाश्रों के सिक्के | अपोलोडोटस वास्त्री वंश का यूनानी नरेश था । उसका तथा पार्थियन राजाओं का काल ईसा पूर्व दूसरी तीसरी शताब्दी है । इन सिक्कों से ज्ञात होता है कि बाज़ से २२०० - २३०० वर्ष पहले शौरीपुर बहुत समृद्ध और प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था तथा उपर्युक्त सिक्के व्यापारिक उद्देश्य से ही यहाँ लाये गये होंगे । एक किम्बदन्ती के अनुसार प्राचीन काल में किसी रानी ने यहां के सम्पूर्ण जैन मन्दिरों का विध्वंस करा दिया था। इससे ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में यहाँ अनेक मन्दिर रहे होंगे और यह जैनों का प्रमुख केन्द्र रहा होगा । यह तीर्थं मूलतः दिगम्बर जैनों का है। सभी प्राचीन मन्दिर, मूर्तियाँ और चरण दिगम्बर जैनाम्नाय के हैं । प्राचीन काल से पासपास के जैन यहीं पर मुण्डन, कर्णवेधन आदि संस्कार कराने आते हैं । यादववंशी जैनों में प्रथा है कि किसी आत्मीयजन की मृत्यु होने पर कार्तिक सुदी १४ को यहाँ दीपक चढ़ाते हैं । यह क्षेत्र मूलसंघानायी भट्टारकों का प्रमुख केन्द्र रहा है। भट्टारक जगतभूषण और विश्वभूषण की परम्परा में भट्टारक जिनेन्द्र भूषण १८वीं शताब्दी में हुए हैं । वे एक सिद्ध पुरुष थे। उनके चमत्कारों की अनेक कहानियाँ यहाँ अबतक प्रचलित हैं । इसके निकटवर्ती वटेश्वर में इन्हीं भट्टारक द्वारा बनवाया हुआ तीन मंजिल का एक मन्दिर है। इसकी दो मंजिलें जमुना के जल में जमीन के नीचे हैं। इसका निर्माण संवत् १८३८ में हुआ था । यहाँ मन्दिर में भगवान अजितनाथ की कृष्ण वर्ण की मूलनायक प्रतिमा विराजमान है जो महोवा से लाई गई थी और जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १२२४ में वैशाख सुदी ७ को परिमाल राज्य में श्रात्हा ऊदल के पिता जल्हण ने कराई थी । प्रतिमा अत्यन्त सातिशय है । इस मन्दिर में भगवान शान्तिनाथ की एक मूर्ति है जो संवत् ११५० वैशाख बदी २ को प्रतिष्ठित हुई, ऐसा मूर्ति-लेख से ज्ञात होता है । अन्य कई प्रतिमायें भी ११-१२वीं शताब्दी की लगती हैं । यहाँ दो जैन धर्मशालायें हैं । यहाँ कार्तिक शुक्ला ५ से १५ तक जेनों का मेला होता है। कार्तिक मास में यहां पशुओं का प्रसिद्ध मेला भरता है । मंगसिर बदी १ को जैन रथयात्रा सारे बाजार में होकर निकलती है । इसमें हजारों जैन भजैन सम्मिलित होते हैं। भगवान नेमिनाथ को निर्वाण-भूमि गिरनार --- भगवान नेमिनाथ सौराष्ट्र देश में स्थित गिरनार पर्वत से मुक्त हुए थे। साहित्य में गिरनार के अनेक नाम मिलते हैं; जैसे उज्जन्त, ऊर्जयन्त, गिरिनार, गिरनार गिरनेर,
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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