SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 320
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीकृष्ण का करुण निधन दोनों भाई मान को दृष्ट निर्णय से विरत न कर सके और वे निराश होकर लौट पाये । शवकुमार आदि पनेक यादव कुमार विरक्त होकर मुनि वन गये । द्वैपायन ममि उसी कोध में मरकर अग्नि कुमार नामक भवनवासी देव बने । जब उस देव को अवधिज्ञान द्वारा वैपायन मुनि की पर्याय में यादवकमारों द्वारा किये गए उपसर्ग और भयंकर अपराध का ज्ञान हुआ तो उसने यादवों से भयंकर प्रतिशोध लेने का निश्चय किया । वह क्रूर परिणामी भयंकर क्रोध में भर कर द्वारकापुरी पहुंचा और उसे जलाना प्रारम्भ कर दिया। उसने स्त्री-पुरुष तो क्या, पशुपक्षियों तक को बच निकलने का अवसर नहीं दिया। जिन्होंने बच निकलने का प्रयत्न भी किया, उन्हें पकड़-पकड़ कर मग्नि में फेंकने लगा। श्रीकृष्ण और बलराम ने आग बुझाने का असफल प्रयत्न किया। उन्होंने माता-पिता पौर बन्धु जनों को भी बचाने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु इसमें भी वे सफल नहीं हो सके। अन्त में हताश होकर, अपने प्रियजनों और अपनी इन्द्रपुरी जैसो नगरी का दारुण विनाश देखते हुए वे दोनों उदास चित्त से बाहर निकल गये। इस प्रकार वह नगरी, जिसकी रचना स्वयं कुवेर ने की थो, देव जिसकी रक्षा करते थे, भस्म होगई। शोकाभिभुत दोनों भाई-बलराम और श्रीकृष्ण वहाँ से चल दिए, निरुद्देश्य, अन्तहीन लक्ष्य की ओर । क्षुधा और तृषा से क्लान्त बे हस्तव नामक नगर में पहुंचे। श्रीकृष्ण तो उद्यान में ठहर गए और बलराम अन्न जल जुटाने के लिए नगर में गये । उस नगर का नरेश पच्छदन्त यादवों का शत्रु था। बलराम श्रीकृष्ण का ने किसी व्यक्ति से अपना स्वर्ण कड़ा और कुण्डल देकर खाने-पीने की सामग्री खरीदी। जब वे करण निधन सामग्री लेकर लौट रहे थे, नगर रक्षकों ने उन्हें पहचान लिया। उन्होंने यह समाचार राजा से निवेदन किया। राजा सेना लेकर वहाँ पाया । बलराम ने संकेत द्वारा श्रीकृष्ण को बुला लिया। बलराम ने हाथी बांधने का एक खम्भा उखाड़ लिया और श्रीकृष्ण ने एक लोह अगला ले ली। उन्हीं से उन दोनों ने सेना का प्रतिरोध किया। उनकी भयंकर मार से सेना भाग गई। तब उन दोनों ने जाकर भोजन किया। भ्रमण करते हुए दोनों भाई कौशाम्बी के भयानक वन में पहुंचे। उस समय सूर्य सिर के ऊपर तप रहा या , भयंकर गर्मी थी। मार्ग की अविरत यात्रा से क्लान्त और तषात श्रीकृष्ण एक स्थान पर रुक गये। वे अपने ज्येष्ठ भ्राता से बोले-'आर्य! मैं प्यास से वहत व्याकूल हैं। मेरा ताल तथा से कटकित हो रहा है। अब मैं एक डग भी चलने में असमर्थ हैं। कहीं से जल लाकर मुझे दीजिए।' बलराम अपने प्राणोपम सनुज की इस प्रसहाय दशा से व्याकुल होगए। वे सोचने लगे-भरत क्षेत्र के तीन खण्डों का अधिपति और बल-विक्रम में अनुपम यह मेरा भाई आज इतना अवश क्यों हो रहा है। जो जीवन में कभी थका नहीं, वह आज अकस्मात् ही इतना परिश्रान्त क्यों हो उठा है? कोटिशिला को अपने बाहुबल से उठाने वाला नारायण आज सामान्य व्यक्ति के समान निर्बलता अनुभव कर रहा है । क्या कारण है इसका? वे बोले-'भाई ! मैं अभी शीतल जल लाकर तुम्हें पिलाता हूँ। तुम इस वृक्ष की शीतल छाया में तब तक विश्राम करो।' यों कहकर वे जल की तलाश में चल दिये। श्रीकृष्ण वृक्ष की छाया में वस्त्र प्रोढ़कर लेट गए। यकावट के कारण उन्हें शीघ्र ही नींद आ गई। भवितव्य दुनिवार है। जरत्कुमार भ्रमण करता हुमा उसी बन में मानिकला। दूर से उसने वायु से श्रीकृष्ण के हिलते हुए वस्त्र को हिरण का कान समझा। उसने मृग का शिकार करने की इच्छा से कान तक धनुष खींचकर शर सन्धान किया। सनसनाता वाण श्रीकृष्ण के पैर में जाकर विध गया। श्रीकृष्ण ने उठकर चारों ओर देखा, किन्तु उन्हें वहाँ कोई दिखाई नहीं पड़ा । तब उन्होंने जोर से कहा- 'किस प्रकारण वैरी ने मेरे पादतल को वेधा है? वह पाकर प्रपना कुल और नाम मुझे बताचे । जरत्कुमार ने यह सुनकर अपने स्थान से ही उत्तर दिया-'मैं हरिवंश में उत्पन्न वसुदेव नरेश का पुत्र जरत्कुमार हूँ। भगवान नेमिनाथ ने भविष्य कथन किया था कि जरत्कुमार के द्वारा कृष्ण का वध होगा। भगवान के इस कथन से डरकर मैं बारह वर्ष से इस वन में रह रहा हूँ। मुझे अपना अनुज कृष्ण प्राणों से भी प्यारा है। इसलिए मैं इतने समय से इस एकान्त में जन जन से दूर, बहुत दूर रहा हूँ। मैंने इतने समय से किसी आर्य का नाम भी नहीं सुना। फिर पाप कौन हैं ? जरत्कुमार की बात सुनकर श्रीकृष्ण बोले-'भाई ! तुम यहाँ प्रायो, मैं कृष्ण हूँ, तुम शीघ्र प्रायो।' जरत्कुमार को ज्ञात तो गया कि यह तो मेरा कृष्ण है। वह शोक करता हुमा शीघ्रता से वहाँ अाया । वह पश्चाताप
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy