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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
श्रीकृष्ण की मृत्यु होगी। उसी समय श्रीकृष्ण को मृत्यु का निमित पाकर तुम्हें पराग्य उत्पन्न होगा और तुम तप करके ब्रह्म स्वर्ग में उत्पन्न होगे। प्राभ्यन्तर कारण के रहते हुए बाह्य निमित्त मिलने पर जगत में अभ्युदय और क्षय होता है । इसलिये विवेकी जन जगत का स्वभाव जानकर इस अभ्युदय और क्षय में समान भाव रखते हैं, वे कभी हर्ष और विषाद नहीं करते।
बलराम के मामा द्वैपायनकुमार भगवान के वचन सुनकर संसार से विरक्त होकर मुनि बन गये तथा अप्रिय प्रसंग को टालने के लिये वे पूर्व देश की पोर विहार कर गये एवं कठोर तप करने लगे। जरत्कमार भगवान के बचन सुनकर बड़ा दुखी हुया; 'मेरे अग्रज की मृत्यु का मैं हो कारण बनूंगा' इस मनस्ताप के कारण वह बन्धुबान्धवों को त्याग कर अज्ञात स्थान की भोर चल दिया, जहाँ श्रीकृष्ण दिखाई भी न दें। जरत्कुमार के जाने से श्रीकृष्ण को बड़ा दुःख हुमा । वह तो उनका प्राणोपम बन्धु था। यादव लोग भी सन्तप्त मन से नगर को लौट गये।
बलदेव और श्रीकृष्ण ने नगर में आदेश प्रचारित कर दिया-'पाज से नगर में मद्य-निषेष प्रादेश लागू किया जाता है । न नगर में कोई मद्य पीएगा, न मद्य बनाएगा, न संग्रह करेगा। जो मद्य नगर में विद्यमान है, उसे नष्ट कर दिया जायगा तथा मद्य-
निर्माण के साधन भी नष्ट कर दिये जायगे। मद्य-प्रतिबन्धक आदेश के लागू होते ही मद्यपी लोगों ने मदिरा बनाने के साधन प्रौर मद्य को पर्वत के कुण्डों में फेंक दिया। पाषाण-कुण्डों में वह मदिरा भरी रही।
मदिरा पर प्रतिबन्ध लगाने के पश्चात् श्रीकृष्ण ने यह घोषणा की कि 'यदि मेरे माता, पिता, पुत्रियों प्रथवा अन्तपुर की स्त्रियां भगवान के निकट दीक्षा लेना चाहें, तो उन्हें मेरी ओर से कोई बाधा नहीं होगी, वे तप करने के लिये पूर्ण स्वतन्त्र है।' यह घोषणा होते ही प्रद्युम्नकुमार, भानुकुमार आदि पुत्रों ने दीक्षा ले ली । रुक्मिणी, सत्यभामा प्रादि रानियों ने भी प्राज्ञा लेकर संयम ग्रहण कर लिया । जब बलदेव का भ्राता सिद्धार्थ दीक्षा लेने के लिये तत्पर हुआ, तो बलदेव ने उससे याचना की-'यदि संयम ग्रहण करते समय मुझे मोह उत्पन्न हो तो तुम मुझे संबोधन करके मार्ग में स्थित करना ।' सिद्धार्थ ने प्रार्थना स्वीकार करके तप ग्रहण कर लिया।
भगवान वहाँ से अन्यत्र बिहार कर गये। भवितव्य टलता नहीं। द्वैपायन मुनि भ्रान्ति दश बारहवें वर्ष को समाप्त हुमा जानकर बारहवें वर्ष में द्वारकापुरी में प्रा पहुंचे। वे पर्वत के निकट प्रातापन योग धारण करके
प्रतिमायोग से विराजमान थे। उस समय शम्ब मादि यादव कुमार वन-क्रीड़ा के लिए पर्वत द्वारका-दाह पर गये । वहाँ से वे जब लौटे तो पिपासा से क्लान्त होकर उन्होंने कादम्ब धन के कुण्डों में
भरे हुए जल को पी लिया, जो वस्तुतः जल न होकर मदिरा थी। मदिरा पुरानी थी, मतः उसमें मादकता अधिक र गई । उस मदिरा को पीते हो यादव कुमार मद विव्हल होगए। वे असंयत होकर मनर्गल प्रलाप करने लगे। अब वे लौट रहे थे तो मार्ग में सूर्य के सन्मुख खड़े होकर तप करने वाले द्वैपायन मुनि को उन्होंने देखा। वे उन पर व्यंग्य करने लगे, प्रश्लील परिहास करने लगे, कुछ यादव कुमारों ने उन्हें पत्थर मारना प्रारम्भ कर दिया। इससे मुनि माहत होकर गिर पड़े। उन्हें यादव कुमारों को उद्दण्डता को देखकर भयानक क्रोष पाया। उनकी भृकुटी तन गई, मोठ फड़कने लगे, नेत्र रक्तवर्ण हो गये।
यादव कुमार झूमते इठलाते हुए द्वारका नगरी पहुंचे। किसी ने द्वैपायन मुनि के साथ किए गए दुर्व्यवहार का समाचार श्रीकृष्ण को सुनाया। समाचार सुनते ही श्रीकृष्ण और बलराम ने समझ लिया कि भगवान ने द्वैपायन मनि द्वारा द्वारका के विनाश की जो घड़ी बताई पी, वह भा पहुंची है। दोनों भाई अनिष्ट की पाशंका से व्याकुल होकर बीघ्रतापूर्वक उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ पायन मुनि कोषमूर्ति बने हुए थे। दोनों ने मुनि को मादरपूर्वक प्रणाम किया और यादव कुमारों द्वारा किए गये अभद्र व्यवहार के लिए उनसे बार-बार क्षमा याचना की और शान्त होने की प्रार्थना की। किन्तु अविवेकी मुनि के ऊपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने द्वारकापुरी को भस्म करने का निश्चय कर लिया था। उन्होंने बलराम और श्रीकृष्ण के लिए दो अंगुलियां दिखाई जिसका स्पष्ट भाशय पा कि तुम दोनों ही बच सकोगे, अन्य नहीं।