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भगवान नेमिनाथ
मार्ग से ले चले । उस समय अद्भुत दृश्य उपस्थित था, आकाश में देव हर्ष-ध्वनि कर रहे थे और पृथ्वी पर यादव वंशी और भोजवंशो करुण विलाप कर रहे थे। भगवान को तब के लिए जाने के अवसर पर अप्सरायें हर्षित होकर भगवान के धागे भक्ति नृत्य कर रही थीं और पृथ्वी पर यादवों को कुलवधुएँ और रानियाँ शोक विव्हल हो रहीं थीं । देव लोग पालकी को लेकर गिरनार पर्वत पर पहुँचे ।
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भगवान पालकी से उतर कर एक शिलातल पर विराजमान हुए। उन्होंने
उतार दिए मोर पंचमुष्ठियों से केशलंचन किया। वे पद्मासन से विराजमान होकर 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर ध्यान में लीन हो गये। भगवान की दीक्षा से प्रभावित होकर तत्काल एक हजार राजाओं ने भी दिगम्बर मुनिदीक्षा लेली । उस समय उन राजाओं ने केशलोंच किया, वह दृश्य अनुपम था । वह केशलोंच नहीं था, किन्तु वे वस्तुतः कुटिल केशों के उखाड़ने के बहाने मानो कुटिल शल्यों को ही उखाड़ रहे थे । सौधर्मेन्द्र ने भगवान के केशों को एक मणिमय पिटारे में बन्द करके उन्हें क्षीरसागर में क्षेपण कर दिया। दीक्षा लेते हो भगवान को मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। उस दिन श्रावण शुक्ला चतुर्थी का दिन था। उस दिन भगवान ने वेला का नियम लेकर दीक्षा ली थी। भगवान का दीक्षा कल्याणक मनाकर देव और मनुष्य अपने अपने स्थान पर चले गये ।
भगवान पारणा के लिए द्वारकापुरी में पहुंचे। वहाँ प्रवरदत्त को भगवान को बाहार देने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस उत्तम दाता ने भगवान को परमान्न का श्राहार दिया। देवों ने पंचाश्चर्य किये— देवों ने रत्न वर्षा की, सुगन्धित जल को वर्षा हुई, शीतल सुगन्धित हवा बहने लगो, देव हर्ष में भरकर दुन्दुभि बजाने लगे और जयजयकार करने लगे - बन्य यहु उत्तम दाता, धन्य यह उत्तम पात्र और धन्य है यह उत्तम दान ।
व के रत्नाभरणों से मण्डित राजमती- जिसे परिवार वाले प्यार में राजुल कहते थे सखियों के साथ बरात की धूमधाम में कल्पनालोक में विहार कर रही थी। वह अपने पिया के प्रेम के भूले पर लम्बी-लम्बी पेगें ले रही थी। तभी विस्फोट के समान यह समाचार सुनाई पड़ा कि नेमिकुमार विवाह से मुख राजमती द्वारा दीक्षा मोड़कर लौट गए हैं और उन्होंने दोक्षा लेलो है। समाचार क्या था, मानो बज्रपात था । समाचार सुनते ही राजमती कटे वृक्ष के समान संज्ञाहीन होकर भूमि पर गिर पड़ी। जब वह होश में भाई तो वह करुण विलाप करने लगी। वह बार-बार अपने भाग्य को दोष देता था। वह बार-बार कहत - 'तेमिकुमार महान हैं। में ही शायद उनके उपयुक्त नहीं थी। मैं तो वामन थी और मैंने ग्राकाश को छूना चाहा । किन्तु यह कैसे संभव हो सकता था। भाग्य ने नेमिकुमार को मेरे लिए वर बनाया था किन्तु दुर्भाग्य ने मेरा मार्ग अवरुद्ध कर दिया। अब मैं उसी दुर्भाग्य से संघर्ष करूंगी। मेरे नेमिकुमार मुझे सांसारिक दशा में प्राप्त नहीं होसके, किन्तु वे ही मेरे इहभव और परभव के पति हैं । वे जिस राह गये हैं, वही मेरो राह है। उन्होंने मुझे राह दिखादी है। मैं घब उसी राह पर चलूंगी।'
माता-पिता और परिजनों ने इसे बहुत समझाया- तेरी वय अभी तप करने की नहीं है। किसी उपयुक्त राजकुमार के साथ तेरा विवाह किये देते हैं।' किन्तु राजमतो का एक हो उत्तर था - पतिव्रता स्त्री के जीवन में एक ही पति होता है | नेमकुमार हो मेरे इस जीवन में पति हैं, उनका स्थान दूसरा कोई कैसे ले सकता है। वे मुझे छोड़ कर चले गये हैं। उनसे मुझे कोई शिकायत नहीं है । उनके कार्य की मीमांसा करने का मेरा क्या अधिकार है। मैं उनके चरणों की दासी हूँ। वे ही मेरे सर्वस्व हैं। ये गये हैं और मुझे भी भ्राने का संकेत कर गये हैं । राजीमती अपने पति की जोगन बनकर अकेली उसी पथ पर चलदी जिस पथ पर उसके महान पति गये
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थे। उसने सारे ग्राभरण, श्रृंगार के साधन ग्रोर माजसज्जा त्याग दो, शरीर पर केवल एक श्वेत शाटिका धारण कर ली। वह परिजनों और पुरजनों से संकुल राजपथ पर होकर श्रवनतमुखी गिरनार पर्वत पर धीरे-धीरे चढ़ने लगी। उसका रूप लावण्य और वय तप के उसके महान संकल्प से और भी अधिक सतेज हो उठे । उसका प्रयो'बन महान था । वह संसार की सारी माया से निर्लिप्त, शरीर से निर्मोह होकर उस कण्टकाकीर्ण मार्ग पर बढ़ती गई, जो आत्म स्वातन्त्र्य के लिए जाता है ।
संसार की किस वधू ने अपने निर्मोही पति के लिए इतना महान श्रौर सर्वस्व त्याग किया होगा ! जिसकी रंगीन कल्पनायें और मीठे सपने एक अप्रत्याशित झटके से बिखर गये, किन्तु जिसने उसके प्रतिरोध का न कोई