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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास मोर भवनों के गवाक्षों से वर के ऊपर पुष्प-पराग बखेर रही थीं। यादवों की यह बरात जब जूनागढ़ पहुंची तो घरात का दूसरा सिरा द्वारिका में था। घर का रथ शनैः शनैः आगे बढ़ रहा था। भोजवशी उनको अभ्यर्थना के लिए पागे बढ़े। राजकुमारो राजमती वधू के वेष में साक्षात् रति लग रही थी। उसकी सहेलियां उसे नेमिकुमार के रूप लावण्य को लेकर बार-बार छेड़ रही थी और राजमती लाज के मारे सिकुड़ जाती थी किन्तु उसके हृदय की हर धड़कन में 'नेमि पिया' का ही स्वर गूंज रहा था। वह अपने साजन की एक झलक पाने के लिए अघोर हो रही थी। वह अपनी भावनामों के गगन में ऊंची उड़ानें भर रही थी। तभो नानाविध बाघों का तुमुल नाद सुनाई पड़ा। सहेगितामाईमौरउरो पाटनी प्रासाद के बाहरी छज्जे पर ले गई। राजीमती सहेलियों के बीच में तारों के मध्य चन्द्रमा के समान शोभा पा रही थी। बर का रथ मागे बढ़ा, तभी उनकी दृष्टि एक मैदान में बाड़े में घिरे हुए भयविव्हल तृणभक्षी बन्य पशुधों पर पड़ी। नेमिकुमार ने सारथी से पूछा-'भद्र ! ये नाना जाति के पशु यहाँ किसलिए रोके हुए हैं ?' सारथी ने विनयपूर्वक उत्तर दिया-प्रभो.! मापके विवाहोत्सव में जो मांसभक्षी म्लेच्छ राजा माये हैं, उनके लिए नाना प्रकार का मांस तैयार करने के लिए यहाँ पशुओं का निरोध किया गया है।' सारथी के बचन सुनकर नेमिकुमार कहने लगे-एक की प्रसन्नता के लिये दूसरे की हिंसा करना छोर अधर्म है । सारथि ! मैं विवाह के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं हूँ। तुम इन प्राणियों को बन्धनमुक्त कर दो।' भगवान का हृदय दया से प्रोत-प्रोत था। वे राजकुमारों से कहने लगे-मनुष्यों की निर्दयता तो देखो। बन ही जिनका घर है, तुण और जल ही जिनका आहार जल है और जो भत्यन्त निरपराध हैं, ऐसे दोन मृगों का भी मनुष्य वध करते हैं। जो शूर वार होकर भी पैर में कांटा न चुभ जाय, इस भय से जूता पहनते हैं, वे इन मूगों, शशकों की गरदन पर तीक्ष्ण धार वाले शस्त्र चलाते हैं, यह कैसा पाश्चर्य है ! यह प्राणी जिव्हा की लोलुपता की तप्ति के लिए भक्ष्य-अभक्ष्य का भी विवेक खो देता है। किन्तु क्या संसार में किसी की भी तप्ति हुई है? मैंने स्वयं मसंख्य वर्षों तक इन्द्र, धरणेन्द्र, मोर नरेन्द्रों के सुख भोगे हैं, किन्तु मुझे उनसे भी तृप्ति नहीं हुई। ये सांसारिक सुख पसार हैं और मेरी मायु भी प्रसार है । मैं इन प्रसार सुखों का त्याग करके नित्य, अनन्त पौर प्रविनाशो सुख के उपार्जन का पुरुषार्थ करूँगा। भगवान के मन में इन प्रनित्य सुखों के प्रति वितृष्णा उत्पन्न हो गई। उन्हें प्रात्म विमुख होकर मांसारिक सुखों में क्षणभर भी अटकना निष्प्रयोजन लगने लगा। तभी लौकान्तिक देव पाये और भगवान के चरणों में सिर झुका कर विनत मुद्रा में निवेदन करने लगे-'प्रभो ! भरत क्षेत्र में पाप की प्रवृत्ति बढ़ गई है, जन-जन के मन में मिथ्या का तमस्तोम छा रहा है। मन तीर्थ-प्रवर्तन का काल मा पहुँचा है। संसार के दिग्भ्रान्त और स्त्री प्राणियों पर दया करके माप तीर्थ-प्रवर्तन कीजिये।' देव यों निवेदन करके अपने प्रावास को लौट गये। - भगवान ने क्या होकर मृगों को बन्धनमुक्त कर दिया । मृग मुक्त होकर भागे नहीं; किन्तु जगद् बन्धु भगवान के चरणों में सिरं झुकाकर खड़े हो गये और अपने त्राता की ओर निहारने लगे। भगवान ने हाथ उठाकर उन्हें मानो सुरक्षा का प्राश्वासन दिया । पाश्वस्त होकर वे मूक प्राणी वन में चले गये। भगवान का दीक्षा-कल्याणक-भगवान ने वरोचित कंकण पौर मोहर उतार दिया। वे वापिस लौटकर नगरी में पहेंचे पौर राज सिंहासन पर विराजमान हो गये। तभी इन्द्र और देव वहाँ पाये । इन्द्रों में भगवान को स्नान पीठ पर विराजमान करके देवों द्वारा लाये हुए क्षोरोदक से उनका अभिषेक किया और उन्हें स्वर्गीय माला, बिलेपन, वस्त्र और आभूषणों से विभूषित किया। सभी यादव प्रमुख श्रीकृष्ण, बलराम प्रादि भगवान को घेर कर खड़े हुए थे। भगवान मोह-माया को तोड़कर बन में जाने को तैयार थे। मोह का कोई बन्धन उन्हें उनके संकल्प से विचलित न कर सका। भगवान माता, पिता, बन्धु बान्धवों को समझाकर कुवेर द्वारा निर्मित उत्तरकुरु पालकी में प्रारून हुए। देवों ने पालकी को ध्वजारों और छत्र से मण्डित किया था। उसमें मणियों के बेल बूटे बने हुए थे। राजाभों ने पालकी को अपने कंधे पर उठाया और कुछ दूर ले गए। उसके बाद पालकी को इन्द्रों ने उठाया पोर आकाश
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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