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जैन धर्म में तीर्थंकर- मान्यता
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है । किन्तु वे तीर्थंकर बनते हैं अपनी साधना, तपस्या और पुरुषार्थ द्वारा तोर्थकर कर्म नष्ट करने पर परमात्मा बन जाते हैं, किन्तु कोई परमात्मा कर्म-बन्ध करके तीर्थंकर नहीं बनता । इसलिये तीर्थंकर अवतार नहीं कहलाते । सिद्ध परमात्मा बनने पर उनके कोई कर्म शेष नहीं रहता । जन्म, मरण, रोग, शोक चिन्ता आदि कर्म के फल हैं । 'जब कर्म ही नहीं तो ये बाधि व्याधि भी नहीं हो सकतीं। इसीलिए जैन धर्म में अवतारवाद की कल्पना को कोई स्थान नहीं है ।
तीर्थकर चौबीस होते हैं। वर्तमान तीर्थकरों के नाम इस प्रकार हैं
१ ऋषभदेव, २ अजितनाथ ३ संभवनाथ ४ अभिनन्दननाथ, ५ सुमतिनाथ, ६ पद्मप्रभ ७ सुपार्श्वनाथ ८ चन्द्रप्रभ पुष्पदन्त १० शीतलनाथ, ११ श्रेयांसनाथ, १२ वासुपूज्५. १३ विमलनाथ, १४ अनन्तनाथ १५ धर्मनाथ, १६ शान्तिनाथ, १७ कुन्थुनाथ, १८ अरहनाथ १६ मल्लिनाथ, २० मुनिसुव्रतनाथ २१ नमिनाथ २२ नेमिनाथ ( श्ररिष्टनेमि ) २३ पार्श्वनाथ, २४ महावीर वर्धमान ।
तीर्थंकरों के वश, वर्ण, विवाह, आसन आदि की जानकारी करना भी अत्यन्त रोचक होगा, अत: उनके सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य बातों का उल्लेख यहां किया जा रहा है। वंश - भगवान महावीर नाथवंश में उत्पन्न हुए। श्वेताम्बर परम्परा में इनका वंश णाय वंश (ज्ञातृ
वंश) बताया है। भगवान पार्श्वनाथ का जन्म उग्रवंश में हुआ। मुनि सुव्रत नाथ और नेमिनाथ हरिवंश में उत्पन्न हुए । धर्मनाथ, कुन्थुनाथ और धरनाथ कुरुवंश में पैदा हुए। शेष १७ तीर्थकर इक्ष्वाकु वंश में हुए ।
वर्ग - सुपार्श्वनाथ तथा पार्श्वनाथ तीर्थंकर हरित वर्ण के थे। मुनिसुव्रतनाथ और नेमिनाथ नील वर्ण थे । चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त का शरीर सफेद था। पद्मप्रभ और वासुपूज्य का रंग लाल था । शेष १६ तीर्थकरों के शरीर का वर्ण संतप्त स्वर्ण जैसा था ।
तीर्थंकरों के नाम
तीर्थंकरों के सम्बन्ध में विशेष शतव्य
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विवाह - वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये पांच तीर्थंकर बाल ब्रह्मचारी थे। इन्होंने विवाह नहीं किया था, कुमार अवस्था में ही प्रव्रज्या ग्रहण कर लो थी । शेष तीर्थकरों ने विवाह किया था।
इस विषय में दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में कुछ मान्यता-भेद हैं। दिगम्बर परम्परा मान्य 'तिलोयपत्ति' ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में इस प्रकार उल्लेख मिलता है
'नेमी मल्ली वोरो कुमार कालम्मि वासुपुज्जो य ।
पासो विथ गहिद तथा शेष जिणा रज चरमम्मि ||४|६७०
अर्थात् भगवान नेमिनाथ, मल्लिनाथ, महावीर, वासुपूज्य और पार्श्वनाथ इन पांच तीर्थकरों ने कुमार-काल में और शेष तीर्थकरों ने राज्य के अन्त में तप को ग्रहण किया ।
'तिलोयपण्णत्ति' की इस मान्यता का समर्थन दिगम्बर परम्परा के शेष सभी ग्रन्थों ने किया है। इसलिए दिगम्बर परम्परा में इन पांच तीर्थकरों को पंचकुमार अथवा पंच बालयति माना है। इन पंच बालयतियों की मूर्तियों भी अत्यन्त प्राचीन काल से उपलब्ध होता हैं ।
किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में इस सम्बन्ध में दो मान्यतायें प्रचलित रही हैं। 'आवश्यक नियुक्ति' में जो कि प्राचीन आगम ग्रन्थ माना जाता है, इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेख प्राप्त होता है
'वीरं अरिनेम पास मल्लि च वासुपूज्जं च ।
एए मुसण जिणे प्रवसेसा आसि रायाणो ॥ २४३॥
रायकुलेसु वि जाया विसुद्ध से स्वप्तिप्रकुलेसु । णय इस्थिया भिसेना कुमारवासंसि पय्वइया ॥ २४४ ॥
पर्थात् महावीर, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, मल्लिनाथ, और वासुपूज्य ये पांच तीर्थंकर विशुद्ध क्षत्रिय राज