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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास १४ १. दर्शन विशुद्धि - पच्चीस दोषों से रहित सम्यग्दर्शन की प्राप्ति । यह गुण तीर्थंकर प्रकृति के लिए आवश्यक हो नहीं, अनिवार्य है । २. विनय सम्पन्नता - देव, शास्त्र और गुरु तथा रत्नत्रय का हृदय से सम्मान करना । ३. शील और व्रतों का निरतिचार पालन - व्रतों तथा व्रतों के रक्षक नियमों (शीलों) में दोष न लगने देना । ४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग - निरन्तर सत्य ज्ञान का अभ्यास, चिन्तन, मनन करना । ५. अभीक्ष्ण संवेग - धर्म और धर्म के फल से अनुराग होना । ६. शक्ति के अनुसार त्याग—अपनी शक्ति के अनुसार कषाय का त्याग, ममत्व का त्याग तथा प्रहार, अभय, औषधि और ज्ञान का दान करना । ७. शक्ति के अनुसार तप अपनी शक्ति को न छिपा कर अन्तरंग और बहिरंग तप करना ८. साधु समाधि - साधुनों का उपसगं दूर करना तथा समाधि पूर्वक मरण करना ६. वैयावृत्य करण - व्रती त्यागी और साधर्मी जनों की सेवा करना, दुखी का दुःख दूर करना १०. अर्हन्त भक्ति - अर्हन्त भगवान की हृदय से भक्ति करना ११. प्राचार्य भक्ति - चतुविध संघ के नायक श्राचार्य की भक्ति करना १२. बहुश्रुत भक्ति उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना १३. प्रवचन भक्ति - तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट जिनवाणी की भक्ति करना १४. श्रावश्यका परिहाणी - छह प्रावश्यक कर्मों का सावधानी पूर्वक पालन करना १५. मार्ग प्रभावना - जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करना १६. प्रवचन वात्सल्य - साधर्मी जनों से निश्छल प्रेम करना तीर्थकर किसी नये धर्म की स्थापना नहीं करता, न वह किसी नये सत्य का उद्घाटन ही करता है। वह तो सनातन सत्य का ही प्ररूपण करता है । इसे ही तीर्थ प्रवर्तन कहा जाता है । यह धर्म तीर्थ का प्ररूपक धर्मनेता होता है, धर्म संस्थापक नहीं होता । धर्म तो अनादि निधन है। उसकी स्थापना नहीं हो सकती । धर्म के कारण जो व्यक्ति तीर्थकर बना है, वह किस नये धर्म को स्थापना करेगा क्योंकि धर्म तो उससे पूर्व भी था । वस्तुतः धर्म से तीर्थंकर बनता है, तीर्थंकर से धर्म नहीं बनता । जो व्यक्ति से धर्म बनता है, वह धर्म नहीं; व्यक्ति की मान्यता है । वस्तु का स्वभाव धर्म है, वह तो वस्तु के साथ है। वह स्वभाव किसी के द्वारा बनाया नहीं जाता, केवल बताया जाता है । अतः तीर्थकर धर्मनेता हैं, धर्म संस्थापक नहीं । जैन धर्म में किसी ऐसे ईश्वर की मान्यता नहीं है जो अवतार लेता है। तीर्थकर ईश्वर नहीं होते । वे तीर्थंकर कर्म के कारण तीर्थंकर कहलाते हैं। तीर्थकर नामकर्म सातिशय पुण्य प्रकृति है । तीर्थकर नाम कर्म के कारण कल्याणक प्रत्येक तीर्थकर के होते हैं। उनके ३४ अतिशय अर्थात् जन साधारण की अपेक्षा प्रद्भुत बात होती हैं। जन्म के समय १० प्रतिशय होते हैं, केवल ज्ञान हो जाने के अनन्तर १० अतिशय स्वयं होते हैं तथा १४ अतिशय देवों द्वारा सम्पन्न होते हैं । इन प्रतिशयों के अतिरिक्त तीर्थंकर के अपनी माता के गर्भ में आने से ६ मास पहले सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र का ग्रासन कम्पायमान होता है। तब वह अवधिज्ञान से ६ मास पश्चात् होने वाले तीर्थंकर के गर्भावतरण को जानकर श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी आदि ५६ कुमारिका देवियों को तीर्थंकर की माता का गर्भ-शोधन के लिए भेजता है तथा कुबेर को तीर्थकर के माता-पिता के घर पर प्रतिदिन तीन समय साढ़े तीन करोड़ रत्न बरसाने की आशा देता है । यह रत्नवर्षा जन्म होने तक अर्थात् १५ मास तक होती है। छह मास पीछे जब तीर्थंकर भाता के गर्भ में प्राते हैं, तब माता को रात्रि के अन्तिम प्रहर में १६ स्वप्न दिखाई देते हैं। यह सब पुण्य का फल है। वस्तुतः पुण्य के कारण तीर्थंकर को जो लाभ होता है, उससे यह सूचित होता है कि वे तीर्थंकर बनेंगे। किन्तु जब केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् वे भाव तीर्थ की स्थापना अथवा तीर्थं प्रवर्तन करते हैं, तीर्थंकर तो वे तभी कहलाते हैं । गर्भ से तीर्थंकर द्रव्य दृष्टि से कहलाते हैं मीर भाव से धर्मतीर्थ प्रवर्तन के कारण तीर्थंकर कहलाते जैन धर्म में अवतारवाद नहीं है
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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