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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास प्रद्युम्न का जन्म और अपहरण - एक दिन हस्तिनापुर नरेश दुर्योधन ने श्रीकृष्ण के पास एक दल के द्वारा समाचार भेजा - 'यदि मेरे पुत्री उत्पन्न हुई और रुक्मिणी या सत्यभामा के जिसके पहले पुत्र उत्पन्न हुआ तो उन दोनों का विवाह कर दिया जाय ।' श्रीकृष्ण इस सन्देश को पाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने दूत को अपनी स्वीकृति देकर और उसका यथोचित सम्मान करके उसे विदा किया । ૮૨ सत्यभामा ने जब समाचार सुना तो उसने रुक्मिणी के पास अपनी सेविकायें भेजीं। उन्होंने रुक्मिणी से जाकर सन्देश दिया- 'देवो ! हमारी स्वामिनी ने श्रापके लिये एक प्रिय सन्देश भेजा है कि हम दोनों में से जिसके पहले पुत्र उत्पन्न होगा, वह दुर्योधन की पुत्री का पति होगा, यह निश्चित हो चुका है। हम दोनों में से जिसके पुत्र नहीं होगा. उसकी चोटी काट कर वर और वधू उसके कपर स्नान करेंगे। यदि आपको यह बात स्वीकार हो तो आप अपनी सहमति प्रदान कीजिये ।' रुक्मिणी ने प्रसन्न होकर अपनी स्वीकृति दे दी । संयोग की बात थी कि रुक्मिणी ने एक दिन रात्रि में स्वप्न में हंस विमान के द्वारा आकाश में बिहार किया । उसी दिन अच्युतेन्द्र ने उसके गर्भ में अवतरण किया। उसी दिन सत्यभामा ने भी स्वर्ग से च्युत हुए जीव को गर्भ में धारण किया। नौ माह पूर्ण होने पर दोनों हो रानियों ने एक हो रात्रि में पुत्र प्रसव किये। यह शुभ समाचार देने के लिए दोनों के सेवक श्रीकृष्ण के पास पहुँचे। श्रीकृष्ण उस समय शयन कर रहे थे। अतः सत्यभामा के सेवक उनके सिरहाने और रुक्मिणी के सेवक उनके पैरों की ओर खड़े होकर उनके जागने की प्रतीक्षा करने लगे । श्रीकृष्ण जब जागे तो पहले उनको दृष्टि पैरों की ओर खड़े सेवकों पर पड़ी। सेवकों ने उन्हें रुक्मिणी के पुत्र जन्म का हर्ष समाचार सुनाया। श्रीकृष्ण ने अपने शरीर पर स्थित सभी आभूषण उतार कर सेवकों को पुरस्कार स्वरूप दे दिये। जब श्रीकृष्ण ने मुड़कर दूसरी ओर देखा तो सत्यभामा के सेवकों ने उन्हें सत्यभामा की पुत्रोत्पत्ति का शुभ समाचार सुनाया। श्रीकृष्ण ने उन्हें भी यथोचित पुरस्कार देकर सन्तुष्ट किया । तभी एक भयानक दुर्घटना घटित हो गई जिसने राज प्रासाद में हर्ष के वातावरण को विषाद में परिणत कर दिया । धूमकेतु नामक एक भयंकर असुर विमान में जा रहा था। जब उसका विमान रुक्मिणी के महलों के ऊपर आया तो वहीं स्थित हो गया। असुर ने विभंगावविज्ञान से इसका कारण ज्ञात किया तो उसे अपने पूर्व जन्म के बेरी को देखकर भयंकर क्रोध ग्राया। उसने मायामय निद्रा में प्रहरियों, सेवकों और रुक्मिणी को सुलाकर अचेत कर दिया और बालक को लेकर श्राकाश मार्ग से चल दिया। वह मन में विचार करने लगा कि इसको किस प्रकार भारा जाय। तभी उसे खदिर ग्रटवी दिखाई दी। वह वहाँ उतरा और एक शिला से बालक को दबाकर चल दिया। उसी समय मेघकूट नगर का राजा कालसंवर अपनो कनकमाला रानी के साथ विमान द्वारा ग्राकाशमार्ग से जा रहा था। उस बालक के पुण्य प्रभाव से विमान आकाश में ही ठहर गया। वह नीचे उतरा। वहाँ 'उसने एक श्राश्चर्यजनक वस्तु देखी। उसने एक विशाल शिला हिलती हुई देखी । उसने कुतूहलवश शिला को हटाकर देखा । उसके ग्राश्चर्य की सीमा नहीं रही, जब उसने कुसुम कोमल सद्यः जात और कामदेव के समान सुन्दर बालक को देखा। उसने बालक को गोद में उठाकर रानी से कहा- 'प्रिये ! तुम्हारे कोई पुत्र नहीं है, लो यह तुम्हारा पुत्र हुआ ।' रानी चतुर थी। वह बोली- 'नाथ ! आपके ५०० पुत्र हैं। उनके सामने इस प्रशास कुलशील बालक का क्या सम्मान हो सकेगा। इससे तो मैं निपूती हो मच्छी हूँ ।' कालसंवर ने तत्काल अपने कान का सुवर्ण-पत्र लेकर बालक के पट्टबन्ध किया और कहा- यह बालक भाज से ही युवराज है । महाराज के इस बचन को सुनकर रानी ने अत्यन्त हर्षित और पुलकित होकर शिशु को अपने मंक में भर लिया तथा ये लोग सानन्द अपने नगर में वापिस मा गये। वहाँ राज्य भर में यह समाचार प्रचारित किया गया कि महारानी कनकमाला को गूढ़ गर्भ था । उन्होंने पुण्यशील पुत्र को जन्म दिया है। सारे राज्य में राजा और प्रजा की घोर से पुत्र जन्मोत्सव विविध प्रायोजनपूर्वक मनाया गया । कामदेव के समान सुन्दर होने के कारण पुत्र का नाम प्रद्युम्न रक्खा गया। पुत्र शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिनोंदिन बढ़ने लगा । उधर द्वारकापुरी में जब रुक्मिणी की निद्रा भंग हुई और ढूँढने पर भी शिशु नहीं मिला तो वह करुण
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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