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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास धनुष और पाञ्चजन्य नामक शंख ये तीन अद्भुत शस्त्र उत्पन्न हुए ।" ये शस्त्र असाधारण थे। देव लोग इनकी रक्षा करते थे । कंस द्वारा इन शस्त्रों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पूछने पर वरुण ज्योतिषी ने कहा- 'राजन्! जो व्यक्ति नागशय्या पर चढ़कर धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ादे और पाञ्चजन्य शंख को फूंक दे, वही तुम्हारा शत्रु है।' ज्योतिषी के वचन सुनकर कंस की चिन्ता और भी बढ़ गई। उसने शत्रु का पता लगाने के लिये नगर में घोषणा करा दी - 'जो कोई यहाँ आकर नागशय्या पर चढ़कर एक हाथ से पाञ्चजन्य शंख बजावेगा और दूसरे हाथ से धनुष पर डोरी चढ़ा देगा, वह पराक्रमी माना जाएगा। महाराज कंस उसका बहुत सम्मान करेंगे और अपनी पुत्री उसे देंगे ।' घोषणा अन्य नगरों में भी प्रचारित की गई। उसे सुनकर अनेक देशों के राजा मथुरापुरी आने लगे ! राजगृह से कंस का साला स्वर्भानु अपने पुत्र भानु के साथ बड़े वैभव के साथ आ रहा था। मार्ग में वह ब्रज के गोधावन के एक सरोवर के तट पर ठहरने का उपक्रम करने लगा। इस सरोवर में भयंकर सर्पों का निवास था । उसे ठहरते देखकर ग्वाल बालों ने उससे कहा-यहाँ ठहरना असंभव है। इस सरोवर से कृष्ण के प्रतिरिक्त कोई व्यक्ति पानी नहीं ले सकता।' यह सुनकर स्वर्भानु ने अन्यत्र अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया और कृष्ण को अपने निकट बुलाकर बात करने लगा। कृष्ण के पराक्रम की बातों को सुनकर वह बड़ा प्रभावित हुआ और उन्हें स्नेहवश अपने साथ मथुरापुरी ले गया । मथुरा पहुँचने पर वे लोग कंस से मिले। उन्होंने उन लोगों को भी देखा, जिन्होंने नागशय्या पर चढ़ने का प्रयत्न किया था किन्तु असफल रहे। यह देखकर साहसी कृष्ण भागे बढ़े। उन्होंने भानु को पास ही खड़ा कर लिया और देखते-देखते उस नागशय्या पर साधारण शय्या के समान चढ़ गये, जिसके ऊपर भयंकर सर्पों के फण लहरा रहे थे। तब उन्होंने एक हाथ से प्रजितंजय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर दूसरे हाथ से शंख को पकड़कर फूंका। इसके बाद स्वर्भानु का संकेत पाकर कृष्ण वहाँ से चल दिये। कृष्ण के लोकोत्तर प्रभाव को देखकर बलदेव को दुष्ट कंस से आशंका हो गई । अतः उन्होंने कृष्ण को अकेला नहीं जाने दिया, बल्कि एक विजयी योद्धा के समान उनके साथ अनेक आत्मीय जनों को भी भेजा । सुप इधर समारोह से विजयी योद्धा के अन्तर्धान होने से नाना भांति की चर्चा होने लगी। किसी ने कहा- यह महान् कार्य राजकुमार भानु ने किया है। किसी ने कहा- यह कार्य भानु ने नहीं; अन्य राजकुमार ने किया है। यह सुनकर कंस ने कहा- 'कौन राजकुमार का वह उसका नाम, धाम पता लगाना होगा। मुझे उसके लिये अपनी कन्या देनी है। जब नन्द गोप को पता लगा कि यह असाध्य काम मेरे पुत्र ने किया है तो वे स्त्री-पुत्र और गायों को लेकर कंस के भय से भाग गये । raft कंस को ज्ञात हो गया था कि यह कार्य कृष्ण ने किया है, किन्तु उसने अपना संदेह प्रगट नहीं किया और उन्हें मारने का उपाय सोचने लगा । उसने विचार करके गोपों को आदेश दिया- 'नाग हृद के सहस्रदल कमल की मुझे आवश्यकता है। तुम लोग उस सरोवर से मुझे कुछ कमल लाकर दो ।' कंस का यह आदेश सुनकर कृष्ण निर्भय होकर उस सरोवर में घुस गये। तभी वहाँ के सांपों का अधिपति मणिधारी कालिय नाग भयंकर फण फैलाकर कृष्ण की ओर तीव्र वेग से आया । किन्तु कृष्ण ने क्रीड़ा मात्र में उस विषधर का मान मर्दन कर दिया। समस्त गोप उस सर्प की भयंकर प्रकृति को देखकर ही भयभीत हो गये थे, किन्तु जब उन्होंने देखा कि कृष्ण ने उस सर्प का वध कर दिया है तो वे हर्ष के मारे उनकी जय-जयकार करने लगे । पीताम्बरधारी कृष्ण कमल तोड़कर ज्यों ही सरोवर से निकले, नीलाम्बरधारी बलभद्र ने उन्हें प्रगाढ़ आलिंगन में भर लिया । समस्त गोप सहस्रदल कमल लेकर कंस के पास पहुँचे और उसके समक्ष उन कमलों का ढेर लगा दिया। यह देखकर कंस ईर्ष्या से दग्ध हो गया । उसने तत्काल आदेश दिया- 'नन्द गोप के पुत्र और समस्त गोप मल्लयुद्ध के लिये तैयार हो जायें । उन्हें हमारे मल्लों के साथ युद्धं करता है।" उत्पन्न हुए १. उत्तर पुराण के अनुसार मथुरा में जैन मन्दिर के समीप पूर्व दिशा में दिक्पाल के मन्दिर में ये तीनों शस्त्ररन थे।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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