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________________ नारायण कृष्ण | नारायण कृष्ण एक दिन देवकी ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में कृष्ण जन्म सात शुभ स्वप्न देखे | प्रथम स्वप्न में उगता हुआ सूर्य, दूसरे में पूर्ण चन्द्र, तीसरे में दिग्गजों द्वारा अभिषिक्त लक्ष्मी, चौथे में आकाश से नीचे उतरता हुआ विमान, पांचव ज्वालाओं से युक्त निर्धम अग्नि, छठे में रत्नों की किरणों से दीप्त देव ध्वज और सातवें स्वप्न में अपने मुख में प्रवेश करता हुआ सिंह देखा । प्रातः काल उठकर उन्होंने पतिदेव से अपने स्वप्नों का वर्णन करके उनका फल पूछा । वसुदेव स्वप्नों का हाल सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले— 'देवी! तुमने जो स्वप्न देखे हैं, उनका फल यह है कि तुम्हारे ऐसा प्रतापी पुत्र होगा जो समस्त पृथ्वी का स्वामी होगा । वह सूर्य के समान प्रतापी, चन्द्रमा के समान सर्वजन प्रिय, दिग्गजों द्वारा श्रभिषिक्त लक्ष्मी के समान अतुल राज्य लक्ष्मी का स्वामी, स्वर्ग से अवतरित होकर, अत्यन्त कान्ति युक्त, स्थिर प्रकृति और सिंह के समान निर्भय वीर होगा । स्वप्नों का फल सुनकर देवकी को अपार हर्ष हुआ । उसी दिन देवकी ने गर्भ धारण किया। गर्भ धीरे धीरे बढ़ने लगा। कुटिल कंस लक्ष्य रूप से गर्भ के महीनों और दिनों की गिनती करता हुआ पूर्ण देख रेख कर रहा था । अन्य बालक नौ माह पूर्ण होने पर उत्पन्न हुए थे। परन्तु कृष्ण का जन्म श्रवण नक्षत्र में भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को सातवें माह में हो गया। सद्य:जात बालक के शरीर पर शंख, चक्र आदि शुभ लक्षण थे। शरीर का वर्ण और कान्ति नीलमणि के समान थी। उनकी कान्ति से प्रसूति गृह प्रकाशित हो उठा। बालक के पुण्य प्रभाव से बन्धु बान्धवों के घरों में शुभ शकुन होने लगे और शत्रुओंों के घरों में अशुभ शकुन होने लगे । सात दिनों से श्राकाश मेघाच्छन्न था । काली अंधियारी सारे नगर पर छाई हुई थी। घनघोर वर्षा हो रही थी । बसुदेव और बलराम ने परामर्ष करके निश्चय किया कि बालक को यथाशीघ्र नन्दगोप के घर पहुँचा देना चाहिये, वहीं इसका पालन पोषण होगा। उन्होंने अपनी योजना देवकी को भी बता दी। बलराम ने बालक को गोद में उठा लिया, वसुदेव ने उस पर छत्र लगा लिया और वे उस घोर अंधियारी रात में वर्षा में ही चल दिये । सारा नगर वेसुध सो रहा था । अन्धेरे में राह नहीं सूझतो थी । किन्तु बालक के असीम पुण्य के प्रभाव से नगर देवता बैल का रूप धारण करके आगे-आगे चलने लगा। उसके सींगों पर दो रत्न-दीप जल रहे थे, जिससे रास्ते में प्रकाश विकीर्ण हो रहा था । गोपुर के द्वार वन्द थे किन्तु बालक का चरण स्पर्श होते ही द्वार खुल गये । तभी पानी की एक बंद बालक की नाक में घुस गई, जिससे उसे छींक आ गई। छींक का शब्द बिजली के समान गम्भीर था । उस गोपुर के ऊपरी भाग में कंस के पिता महाराज उग्रसेन बन्दी थे। छींक के शब्द को सुनकर बोले- 'तू निर्विघ्न रूप से चिरकाल तक जीवित रह पिता-पुत्र इस आशीर्वचन को सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे- ' पूज्य ! रहस्य की रक्षा की जाय । देवकी का यह पुत्र ही प्रापको बन्धन - मुक्त करेगा ।' यों कहकर वे नगर के बाहर निकल गये । बरसात की यमुना घहराती हुई प्रबल वेग से बह रही थी । किन्तु कृष्ण के पुण्य से यमुना ने दो भागों में विभक्त होकर उन्हें मार्ग दे दिया। यमुना पारकर वे अपने विश्वासपात्र नन्दगोप के घर की ओर जा रहे थे। तभी उन्होंने देखा – नन्दगोप सद्यः जात एक बालिका को लिये हुए आ रहे हैं। वसुदेव ने उनसे पूछा- 'नन्द ! तुम यह बालिका कहाँ लिये जा रहे हो ?" नन्द बोले-'कुमार ! मेरी स्त्री ने देवी देवताओं की बड़ी मनौती मनाई थी कि सन्तान हो जाय । किन्तु जब यह कन्या उत्पन्न हुई तो वह कहने लगी- ले जाओ इस कन्या को । मुझे नहीं चाहिये । उन्हीं देवतानों को दे श्राम्रो । उसके कहने से मैं इस कन्या को लिये जा रहा हूं।' नन्दगोप की बात सुन कर वसुदेव बड़े प्रसन्न हुए और बोले- मित्र ! यह कन्या तुम मुझे दे दो और इसके बदले तुम यह पुत्र ले लो और अपनी पत्नी को यह कहकर सोंप दो कि देवताओं ने तुम्हारी प्रार्थना सुनकर स्वीकार करली है और पुत्री के बदले यह पुत्र दे दिया है।' इसके बाद उन्होंने अपने उस विश्वासपात्र मित्र नन्दगोप को सारा वृत्तान्त सुना कर कहा
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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