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________________ हरिवंश की उत्पत्ति अपने साथ एक विश्वस्त अनुचर को साथ ले गये और नगर के दमसान में जा पहुंचे और नौकर को एक स्थान पर बैठाकर उससे कहा-'मैं मंत्र सिद्ध करता है। जब मैं आबाज, तभी तुम उत्तर देना।' इस प्रकार कहकर वे कुछ दूर चले गये। वहाँ एक चिता जल रही थी तथा एक शव पड़ा हुआ था। कुमार ने अपने प्राभूषण उस शव को पहना कर उसे जलती चिता में रख दिया और जोर से कहा-'पिता के समान राजा और चुगली करने वाले नागरिक सुख से रहें । मैं तो अग्नि-प्रवेश करता है। इस प्रकार कहकर और दौड़ने का अभिनय करके, मानो ये अग्नि में प्रवेश कर रहे हों, वे अन्तर्हित हो गये। अनुचर ने सुना तो वह दौड़कर आया और चिता में कुमार के दग्ध शव को देखकर बड़ी देर तक विलाप करता रहा । फिर वह अत्यन्त शोकाकुल होकर राजमहलों को वापिस लौट गया। वहाँ जाकर उसने सम्पूर्ण घटना महाराज को स्ना दी। यह हृदय विदारक घटना सनकर सारे राज कल और नगरवासियों में शोक छा गया। महाराज समुद्रविजय तत्काल बन्धु-बांधवों, नगरवासियों और राज्याधिकारियों को लेकर श्मसान पहुँचे । वहीं शव को भस्म के साथ कुमार के प्राभूषणों को देखकर राबको निश्चय हो गया कि कुमार अवश्य ही अग्नि में भस्म हो गये हैं। यह विश्वास होने पर सभी करुण विलाप करने लगे। राजा समुद्रविजय को घोर पश्चाताप हुआ और अपने प्रिय अनुज को मृत्यु से उन्हें हार्दिक दुःख हुआ। उन्होंने शोक सन्तप्त हृदय से मरणोत्तर क्रियायें की और सब लोग नगर में वापिस लौट आए। कुमार वसूदेव निश्चिन्त मन से पश्चिम दिशा की ओर चल पड़े। उन्होंने एक ब्राह्मण कुमार का वेष धारण कर लिया। चलते-चलते वे विजयखेट नगर में पहुंचे। उस नगर में सुग्रीव नामक एक गन्धर्वाचार्य रहता था। उसकी दो पुत्रियाँ थीं सोमा और विजयसेना । दोनों ही अपूर्व सुन्दरी थीं। गन्धर्वाचार्य अनेक कन्याओं के ने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि जो गन्धर्व विद्या में मेरी पुत्रियों को जीतेगा, वही इनका स्वामी होगा। किन्तु प्राज तक उन दोनों को कोई पराजित नहीं कर सका था। किन्तु वसुदेव ने उन्हें थोड़े समय में ही पराजित कर दिया। सुग्रीव ने दोनों पुत्रियों का विवाह, कुमार वसुदेव के साथ कर दिया । वे वहीं पर सुखपूर्वक रहने लगे। कुछ काल के पश्चात् विजयसेना ने पुत्र प्रसव किया, जिसका नाम अक्रूर रखा गया। ___ एक दिन कुमार गुप्त रूप से वहां से भी निकल गये । भ्रमण करते हुए वे एक अटवी में पहुंचे। वहां एक सन्दर सरोवर को देखकर वे उसमें बहुत देर तक जलक्रीड़ा करते रहे और हथेलियों से जल को बजाने लगे । उस आवाज से तट पर सोया हुया एक हाथी जाग गया। वह कुद्ध होकर कुमार के ऊपर झपटा 1 कुमार बड़ी चपलता से उसके दांतों को पकड़ कर उसके मस्तक पर आरूढ़ हो गये और मुष्टिका प्रहारों से उस गजेन्द्र को अपना वशवी बना लिया। उसी समय दो विद्याधर कुमार आये और कुमार को हाथी के मस्तक से अपहरण करके विजयार्घ पर्वत के मध्य में स्थित कजरावतं नगर में ले गये और कुमार को उस नगर के वाह्य उद्यान में छोड़ दिया। कुमार एक अशोक वृक्ष के पूर्वक बैठ गये, तब उन दोनों विद्याधर कुमारों ने प्राकर उन्हें नमस्कार किया और निवेदन किया--'स्वामिन् ! पाप यहाँ विद्याधर नरेश अशनिवेग की आज्ञा से लाये गये हैं। आप उन्हें अपना श्वसुर समझे । मेरा नाम अचिमाली है और यह दूसरा वायुवेग है ।' यों कहकर उनमें से एक तो नगर की ओर चला गया और दूसरा वहीं सुरक्षा के निमित्त रह गया। नगर में जाकर उसने नरेश को यह शुभ संवाद सुनाया कि हाथी के मान का मर्दन करने वाला सुदर्शन कुमार लाया जा चुका है। सुनकर नरेश बहुत हर्षित हुआ और उसे पुरस्कृत करके नरेश ने मंगलाचार पूर्वक कुमार वसुदेव का नगर प्रवेश कराया और शुभ मुहूर्त में नरेश ने अपनी रूपवतो कन्या श्यामा का विवाह कुमार के साथ कर दिया। निमित्तज्ञानियों ने भविष्यवाणी की थी कि जो व्यक्ति गजेन्द्र का मान मर्दन करेगा, वही राजपुत्री का पति बनेगा। इसीलिए नरेश ने दो युवकों को गजेन्द्र के निकट पहरा देने के लिए नियुक्त कर दिया था। निमित्तशानियों की भविष्यवाणी पूरी हुई। कुमार राजकन्या के साथ सुखपूर्वक भोग भोगते हए कुछ काल पर्यन्त वहीं रहे भोर वहाँ रहकर गन्धर्व विद्या का अध्ययन किया। एक दिन श्यामा का चचेरा भाई अंगारक रात्रि के समय सोते हुए कुमार का अपहरण कर ले गया। बहमाकाशमार्ग से जा रहा था। तभी श्यामा की नींद खुल गई। वह भी हाथों में शस्त्रास्त्र लेकर विद्या-बल
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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