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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास यद्यपि वसू को गुरु-वचनों का अच्छी तरह स्मरण था और वह जानता था कि नारद का पक्ष सत्य है, किन्तु मोहवश वह इस प्रकार कहने लगा—'समाजनी! नारद ने जो कहा है, वह बहुत युक्तियुक्त है किन्तु पर्वत ने जो कहा है , वह उपाध्याय द्वारा कहा गया है। इतना कहते ही वसू का स्फटिकासन पृथ्वी में धंस गया और पाताल में जा गिरा। बसु की तत्काल मृत्यु हो गई और वह नरक में उत्पन्न हुमा । असत्यवादी वसु को सब लोगों ने निन्दा की, पर्वत को नगर से अपमानित करके निकाल दिया तथा यथार्थवादी नारद को ब्रह्म रथ पर आरुढ़ करके उसे नगर में निकाला और सार्वजनिक सम्मान किया। बसु और पर्वत को असत्य का फल तत्काल मिल गया। मत्स्य पुराण में यज्ञों के विकास का इतिहास-हिन्दू धर्म में मान्य 'मत्स्य पुराण' में इस सम्बन्ध में जो कथा दी हुई है. उससे बस के चरित्र, यज्ञों के प्रारम्भिक रूप और परिवतिल रूप पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। कथा इस प्रकार है तापग के प्रारम्भ में इन्द्र ने विश्व-युग नामक यज्ञ किया। बहुत से महर्षि उसमें पाये। किन्तु जब उन्होंने यज्ञ में पशु-बध होते देखा तो उन्होंने उसका घोर विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट कहा-'नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं, न हिंसा धर्म उच्यते।' अर्थात् यह धर्म नहीं है, यह तो बास्तव में अधर्म है। हिंसा धर्म नहीं कहलाता। उन्होंने यह भी कहा कि पूर्वकाल में यज्ञ पूराने धानों से किया जाता रहा है । मनु ने भी ऐसा ही विधान किया है। किन्तु इन्द्र नहीं माना। इस पर एक विवाद उठ खड़ा हुआ। अन्त में इस विवाद का निपटारा कराने के लिए वे चेदि नरेश बस के पास पहुँचे । उसने विना सोचे विचारे कह दिया कि यज्ञ स्थावर मोर जंगम दोनों प्रकार के प्राणियों से हो सकता है। इस पर ऋषियों ने वसू को शाप दे दिया। महाभारत में वसु का चरित्र-राजा वसु घोर तपस्या में लीन थे। इन्द्र को शंका हई कि यदि यह इसी प्रकार तपस्या करता रहा तो यह एक दिन मेरा इन्द्र पद ले लेगा। यह सोच कर इन्द्र उसे तपस्या से विरत करने के लिये वसु के पास पाया और उसे चेदि विषय का राज्य दे दिया तथा उसे स्फटिकमय गगनचारी विमान दिया। वस उस गगनचारी विमान में प्राकाश में विहार करने लगा। इस कारण लोक में वह उपरिचर वस के नाम से विख्यात होगया । एक बार वमु ने अश्वमेध यज्ञ किया। उस यज्ञ में पशु-वध नहीं किया गया। बल्कि वन में उत्पन्न होने वाले फलमूलादि का ही हविष्य दिया गया। इससे देवाधिदेव भगवान उस पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने यज्ञ में प्रगट होकर वसु को साक्षात् दर्शन दिये तथा अपने लिये अपित हविष्य ग्रहण किया। एक बार यज्ञ में दिये जाने वाले हविष्य के सम्बन्ध में देवताओं और ऋषियों में विवाद उत्पन्न हो गया। देवगण ऋषियों से कहने लगे-'प्रजर्यष्टध्यम्' इस श्रुतिवाक्य में अज का अर्थ बकरा है। इसका प्राशय यह है कि बकरों द्वारा यज्ञ करना चाहिए। किन्तु इसका विरोध करते हुए ऋषि बोले- 'देवगण ! वैदिक श्रुति का अर्थ यह नहीं है। इसका अर्थ तो 'वीजों द्वारा यज्ञ करना चाहिये' यह है । अज का अर्थ यहाँ बकरा नहीं; किन्तु बीज हैं। प्रतः बकरे का वध करना उचित नहीं है । इस सत्य युग में पश-वध कैसे किया जा सकता है।' जिस समय देवताओं और ऋषियों में यह विवाद चल रहा था, तभी प्रकाश में विचरण करते हुए राजा वस उस स्थान पर पहुँच गये। उनका सहसा प्रागमन देखकर वे ऋषि देवतामों से बोले-'देवताओ! ये राजा वस् हम लोगों के संशय को दूर कर देंगे। ये स्वयं यज्ञ करने वाले हैं, सर्वभूतहित-निरत हैं। ये शास्त्र के विरुद्ध वचन नहीं कहेंगे।' दोनों ने राजा बसु से अपने पक्ष कह दिये। तब वसु ने देवताओं के पक्ष का समर्थन करते हुए कहा-'अज का प्रर्थ बकरा है । अतः बकरे के द्वारा ही यज्ञ करना उचित है।' १. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय ६३, श्लोक १-१७ २. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३६, श्लोक १-१३
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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