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________________ जैन रामायण रावण ने कहा-'अच्छी बात है।' उसने एक दूत को समझा बुझा कर राम के पास भेजा। दूत ने जाकर राम को नमस्कार किया और कहने लगा-'महाराज! त्रिखण्डाधिपति रावण ने यह कहा है कि प्राप मरे भाई और पुत्रों को छोड़ दें तथा मुझसे सन्धि कर लें। आप सीता की याद भूल जायें। उसके बदले में आपको तीन सौ कन्याये और प्राधा राज्य दे दंगा।' रामचन्द्रजी यह सुनकर बोले- भाई! मूके अन्य स्त्रियों से कोई प्रयोजन नहीं है। तुम रावण से कह देना कि वह मुझ मरो सीता वापिस कर दे, मैं उसके भाई और पुत्रों को वापिस कर दूंगा ।' फिर भी दूत बोला-'देव ! आप समझदार हैं। आप त्रिखंडो राजा रावण के साथ दुराग्रह न करें। मापके पक्ष के बहुत में राजा उनके हाथ से मारे जा चुके हैं, पाप भी उसी प्रकार व्यर्थ मारे जायेंगे । दूत के ये उद्दण्ड वचन सुनकर भामण्डल को भारी क्रोष पाया और उसने दूत को अपमानित करके निकाल दिया। दूत ने जाकर रावण को सारी बातें बताई। रावण सोचने लगा- यदि में युद्ध में वानरों को जीतकर भाई और पत्रों को छुड़ाने का प्रयत्न करूं तो वे उन्हें पहले ही मार डालेंगे। यदि मैं गुप्त रूप से जाकर रात में उन्हें छड़ाता है तोमरी अपकीति होगी। अत: उचित होगा कि में पहले बहरूपिणी विद्या सिद्ध करूं । पर सब काम सिद्ध हो जायंगे।' यों निश्चय करके उसने मंत्रियों को आदेश दिया कि मैं जब तक विद्या सिद्ध करता हैं, तब तक भरत क्षेत्र के सभी मंदिरों में तीनों काल पूजन, कीर्तन, सामायिक होनी चाहिये, लंका में हिंसा बन्द रहे, युद्ध बन्द रहे। मेरी सेवा में केवल मन्दोदरी आदि रानियाँ रहेंगी।' इस प्रकार प्रादेश देकर वह शांतिनाथ जिनालय में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को शुद्ध वस्त्र पहन कर और सामग्री लेकर जा बैठा और नियम कर लिया कि जब तक कामरूपिणी विद्या सिद्ध न हो जायगी, तब तक के लिए उपवास है। इस प्रकार नियम करके वह ध्यान लगाकर बैठ गया। जब विभीषण को यह ज्ञात हा तो उसने बानरवंशियों को एकत्र कर कहा-'रावण विद्या सिद्ध कर है। यदि उसे वह विद्या सिद्ध हो गई तो हमारा जीतना कठिन हो जायगा। अतः उसकी विद्या-सिद्धि में विधन पालना चाहिये।' यह सुनकर मनेक विद्याधर लंका में जा पहुंचे। उन्होंने नगर को लूटना, नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया। बनेक लंकावासियों को मार दिया। नगर में त्राहि त्राहि मच गई। उन्होंने राजमहल में भी जाकर बड़े उत्पात किये। यह देखकर भय नामक दैत्य विद्याधरों से लड़ने को तैयार हमा, किन्तु मन्दोदरी ने उसे रोक दिया कि महाराज रावण की ऐसी माशा नहीं है। तब बानरवंशी शान्तिनाथ जिनालय जा पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने भगवान के दर्शन किये। उसके पश्चात वे वहां पहुंचे जहाँ रावण बैठा हमा था। वहाँ जाकर उन्होंने रावण के समक्ष ही रावण की रानियों की दुर्दशा करना प्रारम्भ कर दिया। किन्तु रावण मविचल भाव से विद्या साधन करता रहा । पन्त में उसे वह विद्या सिद्ध हो गई। विद्या सिद्ध कर रावण भगवान शान्तिनाथ को नमस्कार कर सिंह की तरह उठा। उसे उठते देखकर सब बानर सेना वहां से भाग खड़ी हई । रानियों ने रावण से शिकायत की कि इन वानरों ने हमारी बड़ी दुर्गति की है। रावण बोला-"पर सब वानरवंशी सेना मेरे हाथों से मारी जायगी। तुम लोग निश्चिंत रहो।' यह कह कर वह प्रासाद में पहुंचा और वहाँ स्नान कर पुनः जिनालय में गया। वहां उसने भगवान की पूजा की। फिर भोजन आदि से निवस होकर मण्डप में पाया और विद्या की परीक्षा की, इसके अनेक सप बनते गये। अब सबको विश्वास हो गया कि रावण अवश्य विजयी होगा। इसके पश्चात् रावण श्रृंगार करके सीता के पास पहुंचा। उस समय एक दासी सीता को रावण की बहरूपिणी विद्या की सिद्धि की प्रशंसा कर रही थी। तभी रावण वहां पहुंचा और बोला -'देवी! मुझे बहरूपिणी विद्या सिद्ध हो गई है। मैंने भगवान अनन्तवीर्य के समक्ष प्रतिज्ञा की थी कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी, उसके साथ मैं बलात्कार नहीं करूंगा। अत: मैंने तुझे आज तक स्पर्श नहीं किया। अब मैं तेरे राम और लक्ष्मण को इस विद्या के बल से निष्प्राण करूंगा। फिर तु मेरे साथ पुष्पक विमान में विहार करना मौर जीवन के प्रानन्द उठाना। तब सीता रावण को धिक्कारती हुई कहने लगी-हे दशानन ! तुम उच्च कुल में पैदा होकर ऐसे अधम विचार करते हो, तुम्हें धिक्कार है । मैं तुमसे एक बात कहती हूँ। जब तुम्हें मेरे राम मिलें तो उनसे कहना कि सीता के प्राण केवल तुम्हारे दर्शन के लिए प्रटके हुए हैं। यों कह कर सीता मूछित हो गई।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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