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________________ भगवान शान्तिनाथ देवों का जलस सूमेरु पर्व पर जाकर स्का । कितने देव-देवियाँ थे इस शोभा यात्रा में, क्या उंगलियों को संख्या में वे बांधे जा सकते थे। किन्तु सभी प्रभु की भक्ति में डूबे हुए थे । सब अपनी भक्ति अपने ही ढंग से प्रगट कर रहे थे। वह भक्ति सब बन्धनों से, लौकिक शिष्टाचारों से अतीत थी। लेकिन उसमें एक व्यवस्था थी, अनुशासन था और कलात्मकता थी। प्रभु को पापबुक पर्वत की रत्नशिला पर विराजमान किया और देव यन्त्रचालित से सुमेरु से क्षीरसागर तक पंक्तिबद्ध खड़े हा गये। जलपूरित स्वर्ण कलश एक हाथ से दूसरे हाथों में पहचते गये और इन्द्र भगवान का अभिषेक करने लगे। यो प्रभु का एक हजार कलशों से अभिषेक हुआ । इन्द्राणी ने न्हवन के अनन्तर रत्नकवल से भगवान का शरीर पांछा, इन्द्र के भतार से लाये हुए वस्त्राभूषणों से उनका श्रृंगार किया। तब प्रभ को उस काल की मोहक छवि से इन्द्र फिर एक बार भूल गया अपनी सुध-बुध को। उसके पैर स्वत: ही थिरकने लगे, गन्धों ने वाद्य संभाले, देवियों ने इन्द्र के नृत्य की संगत साघो। भक्ति के इस पूर में सब कुछ भल गये। सबके मन शान्ति, दिव्य शान्ति से भर गय । शान्ति का यह चमत्कारपूर्ण अनुभव था। सीधमन्द्र ने नारा दिया भगवान शान्तिनाथ की जय । सबने इस नारे को दुहराया। यही था वालक का नामकरण सस्कार। यही नाम फिर लोक-लोकान्तरों में विख्यात हो गया । बालक था त्रिलोकीनाथ, नामकरण करने वाला था स्वर्ग का इन्द्र और साक्षी या सम्पूर्ण देव समाज । नाम रक्खा गया था बालक के गुण के अनुसार। देव समाज जिस उल्लास से बालक को ले गया था, उसी उल्लास से वापिस लौटा । आकर माता को साकी असल्य धरोहर सौंपी। इन्द्र ने पिता को सारे समाचार मनाय । सुनकर माता-पिता बडे हर्षित सकसी बिडम्बना है दुनिया वालों की। जो स्वयं तोनों लोक का शृंगार है, उसका शृगार रत्नाभूषणों से कसे हैं और जो स्वयं लोक का रक्षक है, उसकी रक्षा के लिये इन्द्र ने लोकपालों की नियुक्ति की। किन्तु सच बात तो कि भगवान को न शृंगार की आवश्यकता है और न किसी रक्षक की। वह ता इन्द्राणो ओर इन्द्र को भक्ति यौ। वर्ती पद-भगवान शान्तिनाथ के शरीर की कान्ति स्वर्ण के समान थी। उनके शरीर में ध्वजा, तोरण, सूर्य, चन्द्र, शंख और चक्र ग्रादि शुभ चिह्न थे। महाराज विश्वसेन को दूसरी रानी यशस्वती के गर्भ से दृढ़ रथ का जीव अनुतर विमान में अहमिन्द्र पद का भोग करके उत्पन्न हुमा और उसका नाम चक्रायुध रक्खा गया। बालक शान्तिनाथ ज्यों-ज्यों आयु में बढ़ते जाते थे, त्यों-त्यों उनकी लक्ष्मी, सरस्वती और कीति भी बढ़ती जाती थी। जब वे यौवन अवस्था को प्राप्त हुए, तब पिता ने सुन्दर, सुशील और गुणवती अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया और पिता ने अपना राज्य सौंप दिया 1 राज्य करते हुए जब शान्तिनाथ को कुछ समय हो गया. तब चक्र आदि चौदह रत्न और नौ निधियाँ प्रगट हुई। उन चौदह रत्नों में से चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड ये चार पायधशाला में उत्पन्न हुए थे। काकिणो, चर्म और चूड़ामणि श्रीगह में प्रगट हुए थे। पुरोहित, स्थपति. मेनापति और गहपति हस्तिनापुर में मिले थे तथा कन्या, गज और अश्व बिजयाप पर्वत पर प्राप्त हए थे। नौ निधियो इन्द्रों ने नदी और सागर समागम पर लाकर दी थी। चक्र के बल पर और सेनापति के द्वारा उन्होंने भरत क्षेत्र के छहों खंडों पर विजय प्राप्त कर सम्पूर्ण भरत में चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना की। चक्रवर्ती पद को समस्त विभति उन्हें प्राप्त थी। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उन्हें नमन करते थे। उनके अन्तःपुर में छियानवंजार रानियां थीं। उन्हें दस प्रकार के भोग प्राप्त थे। चक्रवर्ती पद का भोग करते हुए उन्हें बहुत काल वीत गया। एक दिन वे अलंकार गृह में मलकार धारण कर रहे थे, तभी उन्हें दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखाई पड़े। वे विचार करने लगे-यह क्या है। तभी उन्हें अपने पूर्वजन्म की बातें स्मरण हो आई । संसार का अस्थिर रूप देखकर उनके मन में पात्मवोक्षा कल्याणक कल्याण की भावना जागृत हुई। तभी लोकान्तिक देवों ने माकर भगवान को नमस्कार किया पौर उनके वैराग्य की सराहना करते हुए उनसे धर्म-तीर्थ के प्रवर्तन करने की प्रार्थना की। भगवान ने नारायण नामक अपने पुत्र को राज्य-पट्ट बांध कर राज्य उसे सौंप दिया। इन्द्र ने पाकर उनका दीक्षा
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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