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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
का शब्द सुनकर महारानी शय्या त्याग कर उठी। उन्होंने मंगल स्नान करके वस्त्रालंकार धारण किये और राजसभा में पहुंची। महाराज ने उनकी अभ्यर्थना की और अपने वाम पाव में सिंहासन पर उन्हें स्थान दिया । महागनी ने रात को देखे हए स्वप्नों का वर्णन करके महाराज से उन स्वप्नों का फल पूछा। अवधिज्ञान के धारक महाराज ने हर्षपूर्वक स्वप्नों का फल बताया और कहा-देवी! तुम्हारे गर्भ में विश्वोद्धारक तीर्थकर देब का यागमन हमा है । सूनकर महारानी को बड़ा हर्ष हुमा। उसो समय चारों निकाय के देव और इन्द्र बहाँ पाये और गांवतार कल्याणक की पूजा की।
पन्द्रह माह तक देवों ने रत्नवृष्टि की। रानी के गर्भ में बालक बड़े अभ्युदय के साथ बढ़ने लगा । नौ माह परे होने पर ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन याम्य योग में प्रातःकाल के समय माता ने लोकोत्तर पुत्र को जन्म दिया।
पत्र इतना सुन्दर था, मानो साक्षात् कामदेव ही अवतरित हा हो। उसका ऐसा मोटन प जन्म कल्याणक
" था कि जो देखता, वह उसकी मोहनी में बंधा रह जाता। वह जन्म से हो मति, श्रुत और अवधि ज्ञान का धारी था। उस पुत्र को पुण्य वर्गणाओं के कारण उसके उत्पन्न होते ही चारों प्रकार की देव जाति में स्वतः ही प्रत्येक देव-विमान और प्रावास में शंखनाद, भेरोनाद, सिंहनाद पीर घण्टानाद होने लगा। उस ध्वनि को सनते ही प्रत्येक इन्द्र और देव ने जान लिया कि तीर्थकर प्रभु का जन्म हुमा है। सबके हृदय भक्ति मोर उल्लास से उमगने लगे । सब देव और इन्द्र विविध वाहनों पर आरुढ़ होकर बड़े प्रानन्द उत्सब के साथ हस्तिनापुर में प्राये और इन्द्राणी ने माता की बगल में मायामय शिशु बनाकर सुला दिया तथा भगवान को अपने अंक में उठा लिया। इन्दागी और देवियों के सन्तान नहीं होती, अतः दे नहीं जानतीं कि पूत्र-वात्सल्य क्या होता है। किन्तु त्रिलोकीनाथ को गोद में लेते ही इन्द्राणी के मनःप्राण जिस अलौकिक पुलक से भर उठे, उससे उसके मन का अणु-मणु प्रभु-भक्ति में. डब गया । वह उस दिव्य बालक को लेकर सम्पूर्ण बाह्य को भूल गई, वह यह भी भूल गई कि वह इन्द्राणी है। वह तो प्रभु की भक्ति में इतनी विभोर हो गई कि अपने मापको प्रभुमही देखने लगा । उस समय की उसकी मनोदशा का अंकन क्या किसी लेखनी या तलिका से हो सकता है?
जब उसे प्रतीक्षारत देवों का ध्यान आया, तब उसे चेत माया । वह बाल प्रभु को लेकर चलो, किन्तु दष्टि प्रभ की सौन्दर्य-बल्लरी का हो रस-पान कर रही थी। वह चल रही है, क्या इसका उसे कुछ पता था। जब सौधर्मेन्द्र ने उसके अंक से बालक को ले लिया, तब उसे लगा जैसे वह रीती हो गई है। किन्तु जो रसाच्छन्नता उसके मन को विमोहित किये हुए थी, वही विमोहित दशा बालक को अंक में लेते ही इन्द्र की भी हो गई । रूप ही मानो आकार धारण करके बाल रूप में आ गया था। किन्तु इन्द्र विजड़ित नहीं हुमा । वह तो सहस्र नेत्र बनाकर उस रूप-सुधा को अपने सारे जड़ चेतन प्राणों से पीने लगा। भक्ति का भी एक नशा होता है। जब यह नशा पाता है तो वह सब कुछ भूल जाता है । तब केवल वह रहता है और उसका प्रमु रहता है। भक्त अपनी भक्ति से दोनों के अन्तर को मिटा डालता है। वहाँ द्वेष भाव समाप्त हो जाता है, प्रभेद भावना भर जाती है। इन्द्र भी तब ऐसी ही स्टेज पर पहुँच गया। मन में हुमक समाये न समायो, वह निकलने को मार्ग ढूंढने लगी । राह मिली पदों में । मा नार रहा था, पर नाचने लगे। जगत्प्रभ अंक में और इन्द्र लोकातीत लोक में, जहाँ इन्द्र नहीं, प्रभु नहीं, देव नहीं, लोक भी नहीं, जहाँ भावना भी प्रतीत हो गई, जहाँ केवल शून्य है पोर शून्य में मधिष्ठित है केवल शुद्ध यात्मा, सिद्ध रूप प्रात्मा।
इन्द्राणी और इन्द्र भाव लोक की इस कैबारी धारा में कितने समय बहते रहे, यह समय की पकड से परे थी। लेकिन इस धारा में उनके कितनो कर्म-बर्गणायें बह गई, उसका अन्त नहीं, उसकी संख्या भी नहीं।
तब सब देव चले। इन्द्र ने भगवान को ऐरावत हाथी पर अपने अंक में ले रखा था। इन्द्र सोच रहा थाक्या भगवान का स्थान यह है। नहीं, उनका स्थान यह नहीं, यह लोक भी नहीं, उनका स्थान तो इस लोक के अन भाग पर है। वहीं तो बनाना है अपना स्थान इन भगवान को। और मुझे ही क्या इन भगवानों का भार सदा लादे फिरना है। मुझे भी तो यह निस्सार बैभव, इन्द्र का तुच्छ पद और स्वर्ग का कोलाहल त्याग कर मानव बनकर लोक शिखर पर पहुंचना है। वही तो है मेरा वास्तविक स्थान !