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________________ द्विपृष्ठ नारायण, तारक प्रतिनारायण 443 दूत के ऐसे उद्धत र गर्वयुक्त वचन सुनकर धीर गम्भीर अचल बलभद्र बोले- 'हाथी क्या, हम तुम्हारे तारक महाराज को बहुत सी भेंट देना चाहते हैं । वे अपनी सेना सहित आवें । वे चाहेंगे और वे जीवन से ऊब गये हों तो उनको जीवन के झंझटों से सदा के लिये छुटकारा दे देंगे।' दूत ने जाकर यह बात नमक मिर्च लगाकर महाराज तारक से कह दी । दूत द्वारा उन राजकुमारों के अपमानजनक उत्तर को सुनकर तारक अभिमानवश मंत्रियों से परामर्श किए बिना क्रोध में फुंकारता हुआ अपनी सेना लेकर उन राजकुमारों को दण्ड देने के लिये चल दिया और जाकर द्वारावती नगरी को घेर लिया। किन्तु अतिशय बलशाली अचल बलभद्र ने अपने पौरुष से शत्रुसेना को रोक दिया और नारायण द्विपृष्ठ ने भयंकर वेग से शत्रु पर प्राक्रमण किया। तारक और द्विपृष्ठ का भयानक युद्ध हुआ । किन्तु अभिमानी तारक इस युवक को पराजित नहीं कर सका। तब प्रत्यन्त क्रोधित होकर तारक ने मृत्यु से भी भयंकर चक्र को द्विपृष्ठ के ऊपर फेंका। किन्तु सारी सेना यह देखकर विस्मयविमुग्ध रह गई कि वह चक्र नारायण द्विपृष्ठ की प्रदक्षिणा देकर उसकी भुजा पर स्थिर हो गया । द्विपृष्ठ ने उसी चक्र को तारक के ऊपर चला दिया । तारक का सिर गर्दन से कटकर अलग हो गया। उसी समय द्विपृष्ठ सात उत्तम रनों भौर तीन खण्ड पृथ्वी का स्वामी हो गया। वह नारायण मान लिया और अचल को सबने बलभद्र स्वीकार किया । अचल चार रत्नों का स्वामी हुआ। दोनों भाइयों ने दिग्विजय करके सब राजाम्रों को अपने अधीन किया। फिर वे वासुपूज्य स्वामी की बन्दना को गये । तद उन्होंने अपने नगर में जनता के हर्षोल्लास के बीच प्रवेश किया । चिरकाल तक दोनों भाइयों ने राज्य का सुख भोगा । द्विपुष्ठ के मरने पर बड़े भाई अचल को भारी शोक हुआ। वह वासुपूज्य स्वामी के चरणों में पहुँचा और उसने मुनि-व्रत धारण कर लिया। घोर तप कर मुनि प्रचल को केवलज्ञान प्राप्त हो गया । श्रायु के अन्त में श्रघातिया कर्मों का क्षय करके उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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