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________________ १५२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास किन्तु हिन्दू पुराणों-जैसे वाराह पुराण अ० १४३, वामन पुराण भ० ४४, महाभारत अनुशासन पर्व १६ मौर बन पर्व प०१६२-१६४ के देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि वह मन्दराचल हिमालय में बदरिकाश्रम (बद्रीनाथ) के उत्तर में था। किन्तु पता नहीं, हिन्दू जनता में भागलपुर जिले के इस मन्दारगिरि को मन्दराचल मानने की गलत धारणा कबसे चल पड़ी। द्विपृष्ठ नारायण, तारक प्रतिनारायण भरत क्षेत्र में कनकपुर का नरेश सुषेण था। उसके राजदरबार में गुणमंजरी नामक एक नर्तकी थी जो अत्यन्त रूपवती और नृत्यकला में पारंगत थी। उसकी ख्याति दूर-दूर तक थी। कई राजा भी उसे वाहते थे । मलय देश के विन्ध्य नगर के राजा विन्ध्यशक्ति ने तो उसे प्राप्त करने के लिए रत्न आदि उपहार पूर्वजन्म में निवान देकर एक दूत को राजा के पास भेजा। दूत ने जाकर राजा से अपने पाने का प्रयोजन प्रगट किया-'महाराज । आपके यहाँ जो नर्तकी रत्न है, उसे महाराज विन्ध्यशक्ति देखना चाहते हैं। उसे मेरे साथ भेज दीजिये । उसे मैं वापस लाकर मापको सौंप दूंगा।' सुषेण दूत के ये वचन सुनकर बड़ा क्रुद्ध हमा मौर दूत का अपमान कर उसे निकाल दिया। दूत ने सारा समाचार अपने स्वामी से कह दिया। विन्ध्यशक्ति सुनकर क्रोधित हो गया और मंत्रियों से परामर्श करके सेना लेकर युद्ध के लिये चल दिया। दोनों राजारों में घोर युद्ध हुना । उसमें सुषेण पराजित हुआ। विन्ध्यशक्ति ने बलात् नर्तकी को छीन लिया। सुषेण अपनी पराजय से बड़ा खिन्न हुआ। उसने सुबत जिनेन्द्र के पास जाकर मुनि-दीक्षा लेली। उसने घोर तप किया और शत्रु से बदला लेने का निदान बन्ध करके सन्यासमरण द्वारा प्राणत स्वर्ग में देव हुमा। महापूर नगर के नरेश वायुरथ ने चिरकाल तक राजलक्ष्मी का भोग किया, फिर उसने सुव्रत जिनेन्द्र के पास पुनि-दीक्षा लेली। अन्त में समाधिमरण कर वह उसी प्राणत स्वर्ग में इन्द्र बना। द्वारावती नगरी के राजा ब्रह्म की रानी सुभद्रा के गर्भ में प्राणत स्वर्ग का इन्द्र प्राया। पुत्र उत्पन्न हमा। उसका नाम प्रचजस्तोक रखखा गया। उसका वर्ण कुन्द पुष्प के समान कान्ति वाला था। राजा ब्रह्म की दूसरी रानी उषा के गर्भ में प्राणत स्वर्ग का वह देव पाया। पुत्र उत्पन्न हुमा । उसका नाम द्विपृष्ठ नारायण और रक्खा गया । उसके शरीर का वर्ण इन्द्रनील मणि के समान कान्ति बाला था। दोनों भाइयों प्रतिनारायण में अगाध प्रेम था। दोनों राजकूमार पानन्दपूर्वक क्रीड़ा करते थे। राजा विन्ध्यशक्ति संसार में विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करता हया भोगवर्धन नगर के राजा श्रीधर की महारानी से तारक नामक पुत्र उत्पन्न हुग्रा। जब वह यौवनसम्पन्न हुया तो उसके शस्त्रागार में देवों द्वारा रक्षित सुदर्शन चक्र उत्पन्न हुआ। चक्र पाकर तारक को बडा हर्ष हमा। उसने चतरंगिणी सेना सजाई और दिग्विजय के लिए निकला। अपनी शक्ति और चक के बल से उसने कुछ ही समय में आधे भरत खण्ड को जीत लिया। अपने साम्राज्य में उसके नाम से ही लोग आतंकित हो जाते थे। प्रकृति से वह उग्र था। वह कृष्ण वर्ण का था। उधर अचल यौर हिपृष्ठ दोनों भाइयों का प्रभाव निरन्तर बढ़ता जा रहा था। तारक को उनका यह प्रभाव सहन नहीं हुआ। उसने दोनों भाइयों का निग्रह करने के लिए उपाय सोचा और एक दूत को उनके पास भेजा। दूत अधिकार भरे स्वर में दोनों भाइयों से बोला--सम्पूर्ण शत्रुयों का मान भंग करने महाराज ने आदेश दिया है कि तुम्हारे पास जो भीमकाय गन्धहस्ती है, उसे फौरन मेरी सेना में भेज दो, अन्यथा तुम्हारा सिर काट लिया जाएगा और हाथी को मंगा लिया जायगा।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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