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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास १५० यह नगरी अंग देश की राजधानी थी। ऋषभदेव भगवान ने जिन ५२ जनपदों की रचना की थी, उनमें अंग भी था। महाबीर-काल में जिन छह महानगरियों की चर्चा पाती है, उनमें चम्पा भी एक नगरी थी। हजारों वर्षों तक इक्ष्वाकु वंशी ही इसके शासक होते रहे। यहां अनेकों धार्मिक घटनायें हुई थीं । यहाँ अनेक मुनि मोक्ष पधारे । यहाँ अनेक महापुरुष हुए। मिथिला नरेश पारथ सुधर्म गणधर के दर्शनों को गये। उनका उपदेश सुनकर श्रावक के बारह व्रत धारण किये। उन्होंने गणधर भगवान से पूछा-'क्या संसार में कोई ऐसा भी व्यक्ति है जो आपके समान उपदेश दे सके।' गणधर बोले-हो, हैं। वे हैं भगवान बासुपूज्य जो संसार के गुरु हैं, त्रिलोक पूज्य है । वे इस समय चम्पा के उद्यान में विराजमान हैं। राजा ने सुना तो वे तत्काल तीर्थकर प्रभु के दर्शन करने चल दिये । मार्ग में गुप्तचर ने समाचार दिया कि अजातशत्र की सेना आक्रमण के लिए आ रही है। पदमरथ ने सेनापति को प्राज्ञा दी-सेना सज्जित करो, किन्तु शत्रु पक्ष का रक्त यहाये बिना विजय प्राप्त करनी है। युद्ध हुआ, शत्रु पक्ष का एक भी सैनिक हताहत नहीं हुमा मौर विजय पद्मरथ को हुई। उन्होंने ऐसे शस्त्रों का प्रयोग किया, जिससे शत्रु बेहोश हो जाय, किन्त मरे नहीं। पदमरथ फिर चलने को तैयार हुए, किन्तु तभी मिथिला नगरी में भयानक माग लग गई। इस माग में राजमहल भी जल गया, किन्तु राजा के मन में विकलता नाममात्र को भी न थी। मंत्रियों ने अपशकुन बताकर उन्हें रोकना चाहा, किन्तु दृढनिश्चयी पद्भरथ ने कहा-बाधाओं को जीतना ही वीरों का काम है। और वह वीर तीर्थकर प्रभु के दर्शनों को चल पड़ा। राह में देखा-कुछ कुष्ठ रोगी पीड़ा से कराह रहे हैं। राजा के मन में करुणा जागो और वे उनकी सेवा में जुट गये, उनके घाव साफ किये, मरहम पट्टी की। एक कोढ़ी ने उनके ऊपर वमन कर दिया, किन्तु उन्हें तनिक भी क्षोभ या ग्लानि नहीं पाई, बल्कि वे अपनी सुधि भूलकर उस असहाय की सेवा करने लगे। आगे बढ़े तो एक स्थान पर बलि देते हुए किसी को देखा। उसे प्रेम से समझाया। तभी विश्वानल मौर धन्वन्तरि देव आये मोर राजा की प्रशंसा करते हुए बोले-'राजन् ! तुम धन्य हो। हमने ही तम्हारी परीक्षा के लिए ये सब नाटक किये थे। किन्तु पाप सम्यक्त्व में खरे उतरे।' फिर वे दोनों देव राजा को एक अद्भत भेरी और व्याधिहर हार देकर चले गये। राजा भेरी बजाते हए चम्पा के उद्यान में पहुंचे और वहाँ वासुपूज्य स्वामी की वन्दना करके उनकी स्तति की । भगवान का उपदेश हुमा । उपदेश सुनकर पद्मरथ को वरीग्य हो गया। उन्होंने वहीं भगवान के चरणों में दीक्षा ले ली। उन्होंने ऐसी साधना की कि उन्हें मनःपर्ययज्ञान हो गया। वे भगवान के गणधर बन गये और भगवान के ही साथ निर्माण प्राप्त किया। __-चम्पा नरेश मघवा की पुत्री रोहिणी अत्यन्त सुन्दरी थी। सौन्दर्य में यह मानो रति ही थी। उसका स्वयंवर हमा। उसने हस्तिनापुर नरेश बीतशोक के सुदर्शन पुत्र अशोक के गले में वरमाला डाल दी। दोनों मानन्दपूर्वक रहने लगे। पिता के बाद अशोक राजा बना। एक बार दोनों भगवान वासुपूज्य के दर्शनों के लिए बम्पापुरी गये । भगवान का उपदेश सुनकर दोनों ने दीक्षा ले ली। मुनि अशोक भगवान के गणधर बने और अन्त में मोक्ष पधारे। रोहिणी अच्युत स्वर्ग में देव हुई। -सेठ सुदर्शन यहीं उत्पन्न हुए थे और उन्हें पाटलिपुत्र में निर्वाण प्राप्त हुमा। -चम्पानगर में धर्मधोष नामक एक श्रेष्ठी थे, वे मुनि हो गये। वे मासोपवासी थे। वे पारणा के निमित्त नगर को पा रहे थे, किन्तु मार्ग में घास होने के कारण गंगा-तट पर एक वट वृक्ष के नीचे बैठ गये। वे ध्यान में मग्न हो गये । तभी उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और वे वहीं से मुक्त हुए। ---राजा कर्ण यहीं के राजा थे, जिनकी दानवीरता को अनेक कथायें प्रचलित हैं। सोमा सती, सती अनन्तमती, कोटिभट श्रीपाल प्रादि पुराणप्रसिद्ध महापुरुषों का जन्म इसी नगरी में हुपा था।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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