SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान बासुपूज्य भगवान इस प्रकार के विन्तन में लीन थे. तभी लौकान्तिक देव वहां गाये और उन्हाने भगवान की स्तुति करके उनके विचारों की प्रशंसा की। देवों ने दीक्षा कल्याणक के समय होने वाला अभिषेक किया, विविध वस्त्राभूषण पहनाये। भगवान देवों द्वारा लाई हई पालकी पर प्रारूढ़ होकर मन्दारगिरि के वन में पहुंचे मोर एक दिन के उपवास का नियम लेकर फागुन कृष्णा चतुर्दशी को सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में सामायिक चारित्र धारण कर छह सौ छहत्तर राजाओं के साथ दीक्षा ले ली। दीक्षा लेते ही उनकी परिणाम-विशुद्धि के कारण तत्काल मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। वे पारणा के लिए जब नगर में पधारे तो सुन्दर नरेश ने उन्हें आहार-दान देकर पुण्य-बन्ध किया और पंचाश्चर्य का सम्मान प्राप्त किया। भगवान तप करने लगे । छदमस्थ अवस्था का एक वर्ष बीतने पर वे विहार करते हुए दीक्षा-वन में पधारे। वहां उन्होंने कदम्ब वक्ष के नीचे बैठकर उपवास का नियम लिया और माघ शुक्ला द्वितीया के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चार घातिया कों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी केवलशान कल्याणक बन गये। इन्द्रों और देवों ने पाकर उनकी पूजा की। इन्द्र को ग्राज्ञा से कुबेर ने समवसरण की रचना की। उसमें श्रीमण्डप के बीच गन्धकुटी में अशोक वृक्ष के नीचे कमलासन पर विराजमान होकर भगवान की दिव्य ध्वनि खिरी। इस प्रकार उन्होंने मन्दारगिरि पर धर्म-चक्र-प्रवर्तन करके धर्म की विच्छिन्न कड़ी को पुनः जोड़ा। __ भगवान का संघ-उनके धर्म प्रादि छियासठ गणधर थे। उनके संघ में १२०० पूर्वधर, ३१२०० शिक्षक, ५४०० प्रवधि ज्ञानी, ६००० केवल ज्ञानी, १०००० विक्रिया ऋद्धिधारी, ६००० मनःपर्ययज्ञानी और ४२०० यादी थे। इस प्रकार कुल मुनियों की संख्या ७२००० थी। इनके अतिरिक्त सेना मादि १०६०००प्रायिकायें थीं। २००००० श्रावक और ४००००० श्राविकायें थीं। निर्वाण कल्याणक-भगवान ने समस्त प्रार्य क्षेत्रों में विहार करके धर्म-वर्षा की और विहार करते हुए चम्पापुरी में एक हजार वर्ष तक रहे। जब प्रायु में एक मास शेष रह गया. तब योग निरोध कर रजतमालिका नदी के तट पर स्थित मन्दारगिरि के मनोहरोद्यान में पल्यंकासन से स्थित हुए तथा भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन सायं काल के समय विशाखा नक्षत्र में चौरानबे मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए। देवों ने पाकर भगवान के निर्वाण कल्याणक की पूजा की। यक्ष-यक्षिणी- उनके सेवक यक्ष का नाम कुमार और यक्षिणी का नाम गान्धारी है। भगवान वासुपूज्य के गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण ये पांचों कल्याणक चम्पानगरी में हुए थे। चम्पा के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी नगरी नहीं है, जिसको किसी तीर्थकर के पांचों कल्याणक मनाने का सौभाग्य प्राप्त हया हो। इस दृष्टि से चम्पा की विशेष स्थिति है। निर्वाण काण्ड, निर्वाण भक्ति, तिलोयचम्पापुरी पण्णत्ति तथा सभी पुराण ग्रन्थों में चम्पा को वासुपूज्य भगवान की निर्वाण-भूमि माना है। केवल उत्तर पुराणकार ने पर्व ५८ श्लोक ५१-५३ में मन्दार पर्वत को वासुपूज्य भगवान की निर्वाण-स्थली लिखा है। किन्तु इससे चम्पा को उनकी निर्वाण-भूमि मानने में कोई असंगति अथवा विरोष नहीं पाता ! चम्पापुरी उन दिनों काफी विस्तृत थी। पुराणों में उल्लेख है कि चम्पा का विस्तार मड़तालीस कोस में था। मन्दारगिरि तत्कालीन चम्पा का बाह्य उद्यान था और वह चम्पा में ही सम्मिलित था। __ वर्तमान में मान्यता है कि चम्पा नाले में वासुपूज्य स्वामी के गर्भ और जन्म कल्याणक हुए थे; मन्दारगिरि पर दीक्षा और केवल ज्ञान कल्याणक हुए तथा चम्पापुर से भगवान का निर्वाण हुआ। १. यह उत्तर पुराण के अनुसार है। तिलोयपषणत्ति के अनुसार भगवान वासुपूज्य का निर्वाण फाल्गुन कृष्णा पंचमी, अपरान्ह काल, अश्विनी नक्षत्र में ६०१ मुनियों के साथ पम्पापुर में हुमा ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy