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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
के उनका मरण हो गया। वे मरण कर महाशुक्र विमान में देव हुए। विशाखभूति मुनि भी मर कर इसी स्वर्ग में देव हुए ।
शिष्ठ नारायण के रूप में सुरम्य देश के पोदनपुर नगर के नरेश प्रजापति की दो रानियाँ थींजयावती और मृगावती । विशाखभूति का जीव स्वर्ग से आयु पूरी करके जयावती का पुत्र विजय हुआ मोर विश्वनन्दी का जीव मृगावती के त्रिपृष्ठ नामक पुत्र हुआ ।
विजयार्थं पर्वत की उत्तर श्रेणी के असकापुर नगर मे मयूरबांच नाम का विद्याधरों का राजा रहता था। उसकी रानी का नाम नीलांजना था। विशाखनन्द का जीव विभिन्न योनियों में भटकता हुआ उस विद्याघर नरेश के अश्वग्रीय नाम का पुत्र हुआ ।
विजयार्ष पर्वत को दक्षिण श्रेणी में रथनूपुर चक्रवाल नामक एक प्रसिद्ध नगर था । ज्वलनजटी नामक विद्याधर उस नगर का स्वामी था। उसकी रानी का नाम वायुवेगा था । उनके शर्ककीर्ति नामक पुत्र और स्वयंप्रभा नामक पुत्री थी। स्वयंप्रभा अत्यन्त सुन्दरी थी । यौवन में पदार्पण करते ही उसका सौन्दर्य सम्पूर्ण कलाओं से सुशोभित हो उठा। उसे देखकर ज्वलनजटी विचार करने लगा कि मेरी पुत्री के उपयुक्त कौन पात्र है। उसने निमित्त शास्त्र में कुशल पुरोहित से इस सम्बन्ध में परामर्श किया। पुरोहित बोला – यह सर्व शुभ लक्षणों से सम्पन्न कन्या प्रथम नारायण की पट्टमहिषी बनेगी। प्रथम नारायण पोदनपुर में उत्पन्न हो चुका है ।
ज्वलनजटी ने तत्काल नीतिकुशल इन्द्र नामक मन्त्री को बुलाया और उसे पत्र तथा भेंट देकर पोदनपुर को भेजा । मन्त्री रथ में मारुढ़ होकर पोदनपुर पहुंचा। वहाँ ज्ञात हुआ कि पोदनपुर नरेश पुष्पकरण्डक नामक वन में वन-विहार के लिये गये हुए हैं। वह उस वन में पहुंचा और राजा के समक्ष जाकर मन्त्री ने उन्हें प्रणाम किया तथा उनके चरणों में भेंट रखकर पत्र समर्पित किया। राजा ने पत्र खोलकर पढ़ा। पत्र में जो लिखा था, उसका भाशय यह था - विद्याधरों का स्वामी महाराज नमि के वंश रूपी आकाश का सूर्य मैं ज्वलनजटी रथनूपुर : से पोदनपुर नगर के स्वामी, भगवान वृषभदेव के पुत्र बाहुबली के वंशावतंस महाराज प्रजापति को सिर से नमस्कार करके कुशल प्रश्न के अनन्तर निवेदन करता हूँ कि हमारा और आपका वैवाहिक सम्बन्ध अति प्राचीन काल से चला मा रहा है। मेरी पुत्री स्वयंप्रभा जो सौन्दर्य और गुणों में लक्ष्मी सदृश है, भापके प्रतापी पुत्र त्रिपृष्ठ की मङ्गिती बने, मेरी यह हार्दिक इच्छा है ।
महाराज प्रजापति पत्र पढ़ कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा- भाई ज्वलनजटी को जो इष्ट है, वह मुझे भी इष्ट है। यह कहकर उन्होंने बड़े आदर के साथ मन्त्री को विदा किया। मन्त्री ने यह हर्ष समाचार अपने स्वामी को दिया । ज्वलनजी अपने पुत्र प्रर्ककीर्ति के साथ स्वयंप्रभा को लेकर पोदनपुर माया और बड़े वंभव के साथ अपनी पुत्री का विवाह त्रिपृष्ठ के साथ कर दिया। इसके अतिरिक्त उसने त्रिपृष्ठ के लिए सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी नामक दो विद्याएं भी प्रदान कीं ।
जब प्रश्जीव को अपने चरों द्वारा इस विवाह के समाचार ज्ञात हुए तो वह ईर्ष्या और क्रोध से भड़क उठा । वह अनेक विद्याधर राजाओं, रणकुशल सैनिकों और प्रस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर रथावर्त नामक पर्वत पर आ पहुँचा । अश्वग्रीव के प्रभियान की बात सुनकर राजकुमार त्रिपृष्ठ भी सेना को सज्जित कर युद्धक्षेत्र में श्रा डटा । दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध हुआ । प्रश्नग्रोव से त्रिपृष्ठ जा भिड़ा। दोनों में भयानक युद्ध हुआ । मन्त में त्रिपृष्ठ ने प्रश्वग्रीव को बुरी तरह पराजित कर दिया । किन्तु अश्वग्रीव पराजय स्वीकार करने वाला व्यक्ति नहीं था। उसने क्रुद्ध होकर भिपृष्ठ के ऊपर भयानक चक्र चला दिया। सारी सेना प्रातंक के मारे सिहर उठी । किन्तु वह चक्र त्रिपृष्ठ की प्रदक्षिणा देकर उसकी दाहिनी भुजा पर ठहर गया । त्रिपृष्ठ ने चक्र लेकर शत्रु के ऊपर फेंका। उसने जाते ही शत्रु की गर्दन धड़ से अलग कर दी !
त्रिपृष्ठ मची अर्थात् नारायण बनकर भरत क्षेत्र के तीन खण्डों का प्रधीश्वर बन गया । प्रतिनारायण अश्वग्रीव पर विजय प्राप्त कर नारायण त्रिपृष्ठ अपने भाई विजय के साथ विजयार्थं पर्वत पर गया। वहाँ उसने दक्षिण और उत्तर दोनों श्रेणियों के राजाओंों को एकत्रित करके ज्वलनजटी को दोनों श्रेणियों का सम्राट् बना दिया ।