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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
तीर्थकर वरितावली
विश्व का अनादि
सत्य
प्रथम भाग
܀܀
प्रथम परिच्छेद
जैन धर्म
विश्व का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। क्षुद्र कीट पतंग से लेकर महान शक्ति सामर्थ्यं और शान विवेक से युक्त देव और मानवों तक सभी की इच्छा और प्रयास सुख की प्राप्ति के लिये ही होता है। अपनी इच्छा और कामना की पूर्ति में ही सुख समाया रहता है। दूसरों द्वारा बलात् थोपा गया सुख पीड़ा ही निपजाता है । स्पष्ट है कि प्रत्येक प्राणी सुख की अभिलाषा करता है और उसका काम्य सुख स्वाधीनता में प्रगट होता है । अर्थात् साध्य सबका सुख है और उसका साधन स्वाधीनता है । स्वाधीनता के बिना सुख मिलता नहीं, पराधीनता में दुःख जाता नहीं । स्वाधीनता हो तो सुख मिल सकता है । इसलिए सुख की उपलब्धि स्वाधीनता के बिना संभव नहीं है । इसलिये कहना होगा कि सुख मौर स्वाधीनता ही विश्व का अनादि सत्य है और यही चरम सत्य भी है।
fing यह भी सत्य है कि समग्र प्राणधारी सत्व, विश्व के समस्त जीव सुख चाहते हैं, प्रयत्न भी सुख के लिये करते हैं, किन्तु उनके हर प्रयत्न का परिणाम दुःख होता है; उनके सारे आयोजनों का परिपाक अनचाहे दुःखः में होता है । सुख के लिये उनकी यह दौड़ मृग मरीचिका बनकर रह जाती है। यह कैसी विडम्बना है कि सब सुख चाहते हैं, किन्तु सुख मिलता नहीं; दुःख नहीं चाहते, किन्तु दुःख टलता नहीं । दुःख के कटु बीज बोकर सुख के मीठे फल लगेंगे, यह कभी संभव नहीं । किन्तु प्रत्येक जीव श्राशा यही करता है । क्षुद्र प्राणियों की तो बात ही क्या है, बुद्धि के कौशल से सुविधा के साधनों का अम्बार इकट्ठा करने वाले मनुष्य को भी अभी समझना शेष है कि सुख के स्वादिष्ट फल सुख के वृक्ष पर ही लगेंगे और सुख का वह वृक्ष सुख का बीज बोकर ही उगेगा ।
सुख का बीज स्वाधीनता है । दुःख कोई दूसरा नहीं देता, दुःख पर की प्राधीनता से आता है । सुख कोई दूसरा देता नहीं है, सुख स्वाधीनता में से आता है। सुख और दुःख का यह विचार अनुभव में से निकला है । यह दर्शन शास्त्र का दुरूह तत्व नहीं, यह चिन्तन का सहज फल है। दुःख मिलता है तो उसका कोई कारण भी रहा होगा । विचार करते हैं तो दृष्टि की पकड़ में दोष दूसरों का प्राता । इसलिये उपालम्भ भी दूसरों को देते हैं । दुःख से बिलबिलाते हैं किन्तु दूसरों को उपालम्भ देकर हम उसका निदान करने की झंझट से बच जाते हैं । इससे दुःख की मात्रा तो कम होती नहीं, उपालम्भ की मात्रा बढ़ जाती है । दुःख का यही एकमात्र निदान व्यक्ति के