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________________ भगवान सुपार्श्वनाथ १२६ दूसरे दिन चर्या के लिए वे सोमसेट नगर में पहुँचे। वहीं महेन्द्रदत्त राजा ने आहार देकर महान पुण्यलाभ किया। भगवान नौ वर्ष तक तप करते रहे। तदनन्तर उसी सहेतुक वन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर शिरीष वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हो गये और फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को विशाखा नक्षत्र केवलज्ञान कल्याणक में उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । देवों और इन्द्रों ने लाकर भगवान के केवलज्ञान की पूजा की। वहीं पर समवसरण में भगवान की प्रथम देशना हुई । उनके बल आदि ६५ गणधर, मीनार्या आदि ३३०४०० श्रर्जिकार्य, २०३० पूर्वज्ञान के धारी, २०४९२० शिक्षक, १००० अवधिज्ञानी, ११०० केवलज्ञानी, १५३०० विक्रिया ऋद्धि के धारक ६१५० भगवान का परिकर मन:पर्ययज्ञान के धारी और ८६०० वादी थे । कुल २००००० श्रावक और ५००००० श्राविकायें थीं । भगवान बहुत काल तक पृथिवी पर बिहार करके भव्य जीवों को कल्याण मार्ग का उपदेश देते रहे । जब उनकी आयु में एक माह शेष रह गया, तब वे सम्मेद शिखर पर पहुँचे। उन्होंने प्रतिमानिर्माण कल्याणक योग धारण कर लिया और फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को विशाखा नक्षत्र में एक हजार मुनियों के साथ निर्वाण प्राप्त किया। देवों ने भगवान का निर्वाण कल्याणक मनाया । यक्ष-यक्षिणी - भगवान के सेवक यक्ष का नाम परनन्दी और यक्षिणी का नाम काली है । सुपार्श्वनाथ कालीन मथुरा के कंकाली टीले पर एक स्तूप के ध्वंसावशेष प्राप्त हुए हैं। आचार्य जिनप्रभरि ने इस स्तूप के सम्बन्ध में 'विविध तीर्थकल्प' में लिखा है कि इस स्तूप को कुवेरा देवी ने सुपार्श्वनाथ के काल में सोने का बनाया था और उस पर सुपार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की थी। फिर पार्श्वनाथ के काल में इसे ईंटों से ढक दिया । आठवी शताब्दी में बप्पभट्ट सूरि ने इसका जीर्णोद्धार किया था । किन्तु सोमदेव सूरि ने 'यशस्तिलक चम्पू ६।१७-१८ में एवं हरिषेण कथाकोष में वत्र कुमार की कथा के अन्तर्गत इस स्तूप को वज्रकुमार के निमित विद्याधरों द्वारा निर्मित बताया | ग्राचार्य सोमदेव ने तो उस स्तूप के दर्शन भी किये थे और उसे 'देवनिर्मित लिखा है । इस स्तूप का जीर्णोद्धार साहू टोडर ने भी किया था, इस प्रकार की सूचना कवि राजमल्ल ने 'जम्बूस्वामी चरित्र' में दी है। उन्होंने भी इस स्तूप के दर्शन किये थे। उस समय वहाँ पाँच सौ चौदह स्तूप स्तूप 1 कुषाणकाल का ( सन् ७६ ) का एक प्रयागपट्ट मिला है, उसमें भी इस स्तूप को देव निर्मित लिखा है । सर विसेण्ट स्मिथ ने इसे भारत की ज्ञात इमारतों में सर्व प्राचीन लिखा है । इस साक्ष्य से यह प्रगट होता है कि ईस्वी सन् से हजारों वर्ष पूर्व भगवान सुपार्श्वनाथ की मान्यता जनता में प्रचलित हो चुकी थी और जनता उन्हें अपना आराध्य देव मानती थी । सुपार्श्वनाथ इक्ष्वाकुवंशी थे । किन्तु उनकी मूर्तियों के ऊपर सर्प- कण-मण्डल मिलता है। पार्श्वनाथ को सर्प फणावलीयुक्त मूर्तियों से सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों में भिन्नता प्रकट करने के लिये सुपाश्वनाथ के ऊपर पंच फणावली बनाई जाती है और पार्श्वनाथ के ऊपर सात फणावली। किसी किसी मूर्ति में पार्श्वनाथ के ऊपर नौ और ग्यारह फणावली भी मिलती हैं। कुछ मूर्तियाँ सहस्र फणावली वाली भी उपलब्ध होती है। पार्श्वनाथ के ऊपर सर्प कण मण्डल का तो एक तर्कसंगत कारण रहा है । वह है संगम देव द्वारा उपसर्ग करने पर धरणेन्द्र द्वारा भगवान के ऊपर सर्पफण का छत्र लगाना । इसके प्रतिरिक्त उनका चिन्ह भी सर्प है। किन्तु सुपार्श्वनाथ के ऊपर सर्प - फण मण्डल किस कारण से बनाया जाता है, इसका कारण खोजने की श्रावश्यकता है। दिगम्बर शास्त्रों में इस बात का कोई युक्तियुक्त कारण हमारे देखने में नहीं माया । हाँ, श्वेताम्बर परम्परामान्य प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा विरचित 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित में लिखा है कि जब भगवान सुपार्श्व को केवलज्ञान हो गया और जब इन्द्र द्वारा विरचित समवसरण में वे सिंहासन पर विराजे, तब इन्द्र ने उनके मस्तक पर सर्प-फण का छत्र लगाया सुपार्श्वनाथ की मूर्तियाँ और सर्प फण मण्डल
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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