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________________ अष्टम परिच्छेद भगवान सुपाश्र्वनाथ धातकी खण्ड द्वीप में सीता नदी के उत्तर तट पर सुकच्छ नाम का देश था। उसके क्षेमपुर नगर में नन्दिपेण नामक राजा राज्य करता था। वह बड़ा नीतिनियुण, प्रतापी और न्यायवान राजा था। जब भोग भोगते हुए उसे बहुत समय बीत गया तो एक दिन वह भोगों से विरक्त हो गया । उसने अपने पुत्र पूर्व भव धनपति को राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित करके अनेक राजाओं के साथ अर्हन्नन्दन मुनि से दीक्षा ले लो। फिर ग्यारह अंग का धारी होकर दर्शन विशुद्धि प्रादि सोलह भावनामों द्वारा तीर्थडर नाम कर्म का बन्ध किया और प्रायू के अन्त में सन्यास मरण कर मध्यम ग्रंबेयक के सुभद्र विमान मैं अहमिन्द्र हुमा। काशी देश में वाराणसी नामक एक नगरी थी। उसमें सूप्रतिष्ठ महाराज राज्य करते थे। वे इक्ष्वाकृवंशी थे। उनकी महारानी पृथ्वीषेणा थी। उनके प्रांगन में देवों ने गर्भावतरण से पूर्व छह माह तक रत्नवर्षा की। महारानी ने भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को विशाखा नक्षत्र में रात्रि के अन्तिम प्रहर में गर्भ कल्याणक सोलह शुभ स्वप्न देखे। उसके बाद उन्होंने मुख में एक हाथी को प्रवेश करते हुए देखा। उसी समय वह अहमिन्द्र अपनी प्रायू पूर्ण कर महारानी के गर्भ में प्राया। पति के मुख से स्वप्नों का फल जानकर' रामी बड़ी हर्षित हई। देवों में गर्भावस्था के पूरे समय उनके प्रांगन में रत्न वृष्टि की और भगवान का गर्भ कल्याणक मनाया । ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन अग्निमित्र नामक शभयोग में महारानी ने तीनों लोकों के गुरु महान् पुत्र को जन्म दिया। इन्द्रों और देवों ने समेरु पर्वत के शिखर पर उनका जन्माभिषेक किया, जन्म कल्याणक सबने भगवान के चरणों में अपने मस्तक झकाये और उनका नाम सौधर्मेन्द्र ने 'सुपाश्वं रक्खा । उनका चिन्ह स्वस्तिक था। शरीर का वर्ण हरित था। जब कुमार काल व्यतीत हो गया तो पिता ने उनका राज्याभिषेक कर दिया । इन्द्र उनके मनोरंजन के लिये नाना प्रकार के उपाय करता था। उन्हें सभी प्रकार का सुख प्राप्त था । सुख के साधन तो सभी थे, किन्तु तावकरी को पाठ वर्ष की प्रायु में देशसंयम हो जाता है। इसलिए भगवान की वृत्ति संयमित थी। उनके तीन ज्ञान थे। एक दिन भगवान को ऋतु-परिवर्तन देखकर मन में विचार उठा-संसार की यही दशा है। सब क्षणस्थायी है। राज्यलक्ष्मी भी इसी प्रकार एक दिन नष्ट हो जाने वाली है। मैं अब तक व्यर्थ ही इनके मोह में प्रटका रहा। मैंने प्रात्म-कल्याण में व्यर्थ ही विलम्ब किया । लौकान्तिक देवों ने आकर वीक्षा-कल्याचक भगवान की स्तुति की। भगवान अपने पुत्र को राज्य सौंपकर देवों द्वारा उठाई हुई मनो गति नामक पालकी में चढ़ कर सहेतूक वन में जा पहुंचे और वहाँ ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को सन्ध्या समय विशाखा नक्षत्र में वेला का नियम लेकर एक हजार राजामों के साथ संयम ग्रहण कर लिया। उसी समय उन्हें मनःपर्ययशान उत्पन्न हो गया।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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