SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थी परिष भगवान सम्भवनाथ विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तरी तट पर कच्छ नामक देश था । वहाँ का राजा विभलवाहन था । वह राज्य के विपुल भोगों के मध्य रहकर भी अनासक्त जीवन व्यतीत करता था। एक दिन उसने भोगों पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से राजपाट अपने पुत्र विमलकीर्ति को सौंपकर भगवान स्वयंप्रभ तीर्थकर के चरणों में मुनि दीक्षा ले ली। उन्होंने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर तीर्थकर के चरण मूल में सोलह कारण भावनाएँ भाई। इससे उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया । श्रायु के अन्त में सन्यास मरण करके प्रथम वैवेयक के सुदर्शन विमान में महमिन्द्र देव हुए। वहाँ भी उनकी भावना और श्राचरण धर्ममय था और सदा धार्मिक चर्चा में ही समय व्यतीत होता था। वहाँ का विपुल वैभव भोर भोग की सामग्री भी उन्हें लुभा न सकी । पूर्व भव गर्भकल्याणक श्रावस्ती नगरी के अधिपति दृढराज्य बड़े प्रभावशाली नरेश थे। उनकी धर्म-प्राण महारानी का नाम सुषेणा था । सुषेणा माता के गर्भ में तीर्थकर प्रभु भवतार लेने वाले हैं, इस बात की सूचना देने के लिये ही मानो गर्भावतरण से छह माह पूर्व से ही रत्नवृष्टि होना प्रारम्भ होगई। फाल्गुन शुक्ला मष्टमी के प्रातःकाल माता सुषेणा ने सोलह स्वप्न देखे । इन स्वप्नों के बाद में उन्होंने स्वप्न में देखा कि एक विशालकाय हाथी उनके मुख में प्रवेश कर रहा । उन्होंने पति देव से स्वप्नों की चर्चा की । महाराज हर्षित होकर स्वप्न फल बताते हुए बोले- देवी ! त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर भगवान हमारे पुण्योदय से हमारे घर में जन्म लेने वाले हैं। महारानी को सुनकर बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। उसी रात्रि को उपर्युक्त महमिन्द्र का जीव उनके गर्भ में श्राया । नौ माह व्यतीत होने पर कार्तिक शुक्ला पूर्णमासी के दिन मृगशिरा नक्षत्र मौर सौम्य योग में मतिश्रुत-अवधि ज्ञानधारी पुत्र का जन्म हुआ। इन्द्रों और देवों ने भगवान का जन्म महोत्सव मनाया, उन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया। फिर बाल प्रभु को श्रावस्ती के राज प्रासादों में लाकर सौधर्म इन्द्र ने उनका नाम 'संभव' रक्खा भौर वहाँ मानन्द नाटक करके देवों के साथ स्वर्ग चला गया । श्रापका घोड़े का चिन्ह था । जन्म कल्यानक कुमार संभव दिव्य सुखों का भोग करते थे। दिव्य वस्त्रालंकार धारण करते थे। युवावस्था में पिता ने उनका राज्याभिषेक करके दीक्षा धारण कर ली। अब महाराज संभवकुमार प्रजा का पालन करने लगे। उनकी पत्नी अत्यन्त सुन्दर और सुशील थी। उन्हें मनवांछित सुख प्राप्त थे । १. वेताम्बर मान्यतानुसार सप्तम वैयक २. तिनोपाली के अनुसार पिता का नाम जितारि और माता का नाम सुसेना, वेताम्बर मोन्यतानुसार पिता जितारि मौर माता का नाम सेमादेवी था । ई. उत्तर पुराण के अनुसार । तिकोन्सी के अनुसार भमसिंर गुस्सा १५ । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार मंगसिर शुक्ला १४ ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy