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________________ ११६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास नदी की परिखा बनादो ।' पुत्र यह काम पाकर बड़े प्रसन्न हुए और पिता की बाशानुसार दण्डरत्न लेकर उसके द्वारा उन मन्दिरों के चारों ओर परिखा खोद दी। मणिकेतु देव अपने मित्र का हित-संपादन करने के सद्भाव से पुनः स्वर्ग से प्राया और जहाँ वे साठ हजार राजपुत्र परिखा खोद रहे थे, वहाँ भयंकर नाग का रूप धारण कर वह पहुँचा । उसकी विषमयी फुकार के द्वारा सभी राजकुमार भस्म हो गये । इसके पश्चात् मणिकेतु ब्राह्मण का रूप धारण कर चक्रवर्ती के पास पहुँचा और बड़े शोकपूरित स्वर में बोला - देव! श्रापके शासन की छाया में रहते हुए हमें कोई दुःख नहीं है । किन्तु श्रसमय में हो यमराज मेरे एक मात्र पुत्र को मुझसे छीन ले गया है। यदि आप उसे जीवित नहीं करेंगे तो मेरा भी मरण निश्चित समझें । चक्रवर्ती ने सान्त्वता देते हुए कहा- विप्रवर्य ! जो संसार में खाया है, यमराज उसे नहीं छोड़ता । तुम यदि यमराज को पराजित करना चाहते हो तो तुम घरवार का मोह छोड़ कर सुनि-दीक्षा ले लो। तब देव मन में प्रसन्न होता हुआ बोला- देव सत्य कहते हैं। यमराज को जीतने का एकमात्र उपाय है। मुनि दीक्षा । किन्तु देव मेरी एक बात सुनें। आपके साठ हजार पुत्र कैलाश पर्वत पर परिखा खोदने गये थे, उन्हें यमराज हर ले गया। अब आपको भी यमराज को जीतने के लिए मुनि दीक्षा ले लेनी चाहिये । ब्राह्मण के ये वचन सुनते ही चक्रवर्ती मूर्छित होकर गिर पड़े। कुछ समय पश्चात् उपचार से वे सचेत हुए और विचार करने लगे- धिक्कार है इस मोह को, जिसके कारण मैं अभी तक संसार का वास्तविक रूप नहीं समझ पाया। सगर द्वारा उन्होंने तत्काल भगलि देश के राजा सिंहविक्रम की पुत्री विदर्भा के पुत्र भगीरथ को राज्य भार सौंप दिया और दृढधर्मा केवली के समीप जाकर दीक्षा धारण कर ली । मणिकेतु देव ने कैलाश पर्वत मुनि दीक्षा पर जाकर उन राजकुमारों को सचेत किया और कहा- आपके पिता को किसी ने भावके मरण का दुस्संवाद सुना दिया था, जिसे सुनकर वे भगीरथ को राज्य देकर मुनि बन गये हैं । ब्राह्मण वेषधारी देव के ये वचन सुनकर उन राजकुमारों को भी वैराग्य हो गया और वे भी मुनि बन गये और तप करने लगे । फिर वह देव सगर मुनि के पास गया और उनसे सबं वृत्तान्त सुनाकर क्षमा मागी । सगर का निर्वाण सगर तथा साठ हजार मुनियों ने घोर तप किया और सम्मेदगिरि पर जाकर मुक्त हो गये। भगीरथ ने जब यह समाचार सुना तो उसे बड़ा वैराग्य हुआ मीर उसने बरदत्त पुत्र को राज्य देकर कैलाश पर्वत पर शिवगुप्त मुनिराज से दीक्षा ले सी । उन्होंने गंगा तट पर प्रतिमा योग धारण करके घोर तीर्थ के रूप में गंगा गयी । इन्द्र ने क्षीर सागर के जल से की प्रसिद्धि का पवित्र जल बह कर गंगा में जा मिला। तप किया। उनके तप की कीर्ति विदिगन्तों में फैल महामुनि भगीरथ के चरणों का अभिषेक किया। वह तभी से गंगा नदी को पवित्र तीर्थ मानने की मान्यता लोक में प्रचलित हो गई। भगीरथ गंगा नदी के तट पर उत्कृष्ट तप कर वहीं से निर्वाण कारण को प्राप्त हुए ।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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