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________________ भरत द्वारा वर्ण-व्यवस्था में सुधार हजार मकटबद्ध राजा थे। उनके प्राधीन बत्तीस हजार देश थे। उनके अन्तः पुर में बत्तीस हजार प्रार्य कल की स्त्रियाँ थीं; बत्तीस हजार म्लेच्छ (अनार्य) राजारों द्वारा दो हई अति रूपवतो. कन्यायें थों; इनके अतिरिक्त उपहार स्वरूप दी गयीं बत्तीस हजार मीर रानियाँ थीं। इस प्रकार वे छियानव हजार अनुपम सुन्दरो रानियों के स्वामी थे। उनके अधिकार में बत्तीस हजार रंगशालायें थों। उनके राज्य में बहत्तर हजार नगर, छियानवै करोड़ गांव थे। निन्यानवे हजार द्रोणमुख, अड़तालीस हजार पत्तन, सोलह हजार खेट, छप्पन अन्तर्वीप, चौदह हजार संवाह थे । एक करोड़ हल, तीन करोड़ ब्रज (गौशालायें), सात सौ कुक्षिवास पीर अट्ठाईस हजार सधन वन थे। उनके प्राधीन अठारह हजार म्लेच्छ राजा थे । काल, महाकाल, नस्सय, पाण्डुक, पप, माणव, पिंग, शंख और सर्वरत्न ये नौ निधियाँ थीं। उनके जड़ और चेतन चौदह रत्न थे। चक्र, छत्र, दण्ड, प्रसि, मणि, चर्म प्रौर काकिणी ये सात अजीब रत्न थे । सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, सिलायट और पुरोहित ये सात सजीब रत्न थे। चक्र, दण्ड, प्रसि, और छत्र ये चार रत्न प्रायुधशाला में उत्पन्न हुए थे तथा मणि, चर्म और काकिणी ये रत्न श्रीगृह में प्रगट हुए थे। स्त्री, हाथी और घोड़ा की उत्पत्ति विजयाध पर्वत पर हुई थी। शेष रत्न निधियों के साथ अयोध्या में ही उत्पन्न हए थे । उनकी पटरानी का नाम सुभद्रा था। उसके अनिन्द्य सौन्दर्य का वर्णन करने में कविजन भी समर्थ नहीं हो सकते। सोलह हजार देव उनकी निधियों, रत्नों और उनकी रक्षा करने में सदा तत्पर रहते थे। उनके प्रासाद के चारों मोर क्षितिसार नामक कोट था । मर्वतोभद नामक मोएर था। उनको सेनामों के पड़ाव का स्थान नन्द्यावर्त कहलाता था। उनके प्रासाद का नाम बैजयन्त था। दिकस्वस्तिका नामक उनकी सभाभूमि थी। भ्रमण में जिस छडी को वे ले जाते थे, वह रत्न निर्मित थी। उसका नाम सुविधि था। गिरिकटक नामक महल में बंठकर वे नगर का निरीक्षण किया करते थे । वर्धमानक नामक नृत्यशाला में बैठकर बेनत्य का आनन्द लिया करते थे। विभिन्न ऋतुत्रों के योग्य उनके अलग-अलग महल थे ! गरमी के लिए धारागृह, वर्षा-ऋतु के लिये गृहकूटक था । पुष्करावर्त नामक उनका विशेष महल था। उनके भण्डारगृह का नाम कुवेरकान्त था। प्रवतंसिका नाम की उनकी रत्नमाला थी। उनका अजितंजय नामक रम, वनकाण्ड धनुष, वजतुण्डा नाम की शक्ति सिंहाटक भाला, सुदर्शन चक्र, चण्डवेग दण्ड प्रादि अमोघ शस्त्र थे। उनका विजयपर्वत हाथी, पवनंजय घोड़ा संसार में अद्भुत थे। उनका भोजन इतना गरिष्ठ होता था, जिन्हें कोई दूसरा नहीं पचा सकता था। इस प्रकार चक्रवर्ती की विभूति का वर्णन सीमित शब्दों में सीमित स्थान में करना अत्यन्त कठिन है। ८. भरत द्वारा वर्णव्यवस्था में सुधार एक दिन भरत चक्रवर्ती के मन में विचार प्राया-मेरे पास प्रगाथ सम्पदा है, अपार वैभव है । मैं इससे दूसरे का उपकार कैसे कर सकता हूं। मुनिजन तो धन लेते नहीं । किन्तु गृहस्थों में ऐसे कौन - पाह्मण वर्ण की हैं जो धन-धान्य, सम्पत्ति मादि के द्वारा पूजा के योग्य हों। जो अणुव्रतधारी हों, प्रावकों में । स्थापना श्रेष्ठ हों, ऐसे व्यक्ति ही पूजा के अधिकारी हैं। तब ऐसे व्यक्तियों की परीक्षा करनी चाहिए। यह विचार कर उन्होंने समस्त राजाओं के पास खबर भेज दी कि पाप लोग अपने यहां के सदाचारी पुरुषों और सेवकों के साथ हमारे उत्सव में पधारें। इधर चक्रवर्ती ने अपने घर के प्रांगन में पास, फलों के पौधे लगवा दिये । यथासमय सब लोग उत्सव में पधारे। जो अनती थे, वे तो बिना सोच-विचार के हरी घास
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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