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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास
इस प्रकार चारों दिशाओं के सम्पूर्ण राजाओं पर विजय प्राप्त कर और सम्पूर्ण भरत क्षेत्र का चक्रवर्तित्व स्थापित कर विजय झानन्द का रसपान करते हुए चक्रवर्ती भरत अपनी विजयनी सेना के साथ अयोध्या की ओर लौटे। इन्हें नव निधियों और चौदह रत्नों का लाभ प्राप्त हुआ था । सम्पूर्ण खण्ड को विजय करने में भरत को साठ हजार वर्षं लगे । प्रयाण करते हुए भरत जब कैलाश पर्वत के समीप पहुँचे तो उनका हृदय जिनेन्द्रदेव को भक्ति से भर गया। वे जिनेन्द्रदेव की पूजा के उद्देश्य से कैलाश पर्वत पर पहुँचे । उनके साथ अनेक मुकुटवद्ध राजा चल रहे थे । कैलाश पर्वत पर पहुँच कर वे सवारी छोड़ कर पैदल ही चले । उन्होंने दूर से ही जगद्गुरु ऋषभदेव का समवशरण देखा । वे वहाँ पहुँचकर धूलिसाल से आगे बढ़े और मानस्तम्भ की पूजा की। फिर वापिका, कोट, अष्ट मंगल द्रव्य, नाट्यशालाओं, वनों, चेत्य वृक्षा, ध्वजाओं, सिद्धार्थ वृक्षों, स्तूपों आदि का अवलोकन-पूजन करते हुए श्री मण्डप में विराजमान भगवान के दर्शन किये। उन्होंने जमीन पर घुटने टेक कर भगवान को नमस्कार किया। फिर अष्टद्रव्यों से भगवान की पूजा की । उनकी स्तुति की। फिर यथास्थान बैठकर भगवान के मुख से धर्म का स्वरूप सुना । फिर भक्तिपूर्वक भगवान को तथा वहां विराजमान समस्त मुनियों को नमस्कार कर उन्होंने समवसरण से प्रस्थान किया और अपनी सेना के साथ चलते हुए वे यथासमय प्रयोध्या के निकट पहुँचे ।
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१५. भरत के भाई-बहनों का वैराग्य
भगवान ऋषभदेव की दो पुत्रियाँ थीं-ब्राह्मी और सुन्दरी ब्राह्मी भरत की बहन और नन्दा माता की पुत्री थी तथा सुन्दरी बाहुबली की वहन और सुनन्दा माता की पुत्री थी। इनकी दीक्षा के सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा में मान्य भगवज्जिनसेन कृत प्रदिपुराण में केवल इतना उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मी और सुन्दरी भगवान का उपदेश सुनकर पुरिमताल नगर में दोनों ने भगवान के समीप दीक्षा धारण का दीक्षा ग्रहण करली। आदिपुराण २४ १७५ १७७ के शब्दों में 'भरत की छोटी बहन ब्राह्मी भी गुरुदेव की कृपा से दीक्षित होकर थार्याओं के बीच में गणिनी के पद को प्राप्त हुई थी । वह ब्राह्मी सब देवों के द्वारा पूजित हुई थीं। उस समय वह राजकन्या ब्राह्मी दीक्षारूपी शरदऋतु की नदी के शीलरूपी किनारे पर बैठी हुई और मधुर शब्द करती हुईं हंसी के समान सुशोभित हो रही थी। वृषभदेव की दूसरी पुत्री सुन्दरी को भी उस समय वैराग्य उत्पन्न हो गया था, जिससे उसने भी ब्राह्मी के बाद दीक्षा धारण करली थी।' इस विवरण के अतिरिक्त और कोई विवाह या ब्रह्मचर्य सम्बन्धी विवरण इनके सम्बन्ध में इस पुराण में नहीं मिलता।
किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में ब्राह्मी का बाहुबली के साथ और सुन्दरी का भरत के साथ सम्बन्ध हुआ था। ब्राह्मी ने तो भगवान को केवलज्ञान होते ही दीक्षा ले ली किन्तु सुन्दरी इस समय दीक्षा नहीं ले सकी क्योंकि भरत ने उसे इसकी अनुमति नहीं दी । भरत चाहता था कि षट्खण्ड पृथ्वी पर विजय प्राप्त करके जब मैं चक्रवर्ती बन जाऊँ, तब सुन्दरी को पटरानी पद प्रदान किया जाय। किन्तु सुन्दरी के मन में प्रबल वैराग्य भावना थी । जब भरत दिग्विजय के लिये गया तब उसने श्राचाम्ल तप करना प्रारम्भ कर दिया। साठ हजार वर्ष व्यतीत होने पर जब भरत सम्पूर्ण भरत क्षेत्र को जीतकर वापिस श्राया तो बारह वर्ष महाराज्याभिषेक समारोह में लग गये ।
१. श्रावश्यक नियुक्ति, श्रावश्यक चूरिंग तथा मलयगिरि त