________________
८६
भरत को दिग्विजय किया । वे हाथी सुमागधी, गंगा, गोमती, कपीवती, रथास्फा, गम्भीरा, कालतोया, कौशिकी, कालमही, ताम्रा, अरुणा
और निचुरा नदियों तथा लोहित्य समुद्र और कम्बुक नामक सरोवरों में घूमे थे। इन हाथियों ने उदुम्बरी, पनसा, तमसा, प्रमशा, शक्तिमती और यमुना नदी के जल का निर्वाध पान किया था। इन विजयो हाथियों ने ऋष्यमूक, कोलाहल, माल्य और नागप्रिय पर्वतों को रोंद डाला। इन्होंने चेदि और ककश देश के हाथियों को परास्त कर दिया।
भरत की सेना के तीव्रगामी घोड़े शोण नदी के दक्षिण और नर्मदा नदी के उत्तर ओर वीजा नदी के दोनों पोर और मेखला नदी के चारों ओर घूमे थे।
भरत ने पूर्व दिशा के सब राजाओं को पीसकर दक्षिा दिहाकी और प्रस्थान लिया। दक्षिण में भरत ने त्रिकलिंग, प्रोड, कच्छ, प्रातर, केरल, चेर और पुम्नाग देश के राजाओं पर विजय प्राप्त की। उन्होंने कट, प्रोलिक, महिष, कमेकूर, पांडय और अन्तर पाइय देश के राजाओं के मस्तक अपने चरणों में नवाये। चक्रवर्ती को प्राज्ञानुसार उनका सेनापति जयकुमार तेला, इक्षमती, नरवा, वंगा, श्वसना, वैतरणी, माषवती, महेन्द्रका, गोदावरी, सुप्रयोगा, कृष्णवेणा सन्नीरा प्रवेणी, कुब्जा, धैर्या, चूर्णी, वेणा, सूकरिका, और अम्बर्णा नदियों को पार कर उनके तटवर्ती राजाओं को आज्ञानुवर्ती बनाता हुआ कर्णाटक, आन्ध्र, चोल, पाण्ड्य आदि देशों को अपने प्राधीन करने में सफल हुन्या । चक्रवर्ती ने समुद्र में जाकर बरतनु नामक देव को जीता।
सम्पूर्ण दक्षिण देश को जोतकर महाराज भरत ने पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान किया। वे सह्याद्रि को लांघकर समुद्र तट पर पहुंचे। भीमरथी, दारवेणा, नीरा, मूला, वाणा, केतवा, करीरी, प्रहरा, मुररा, पारा, मदना, गोदावरी, तापी, लांगलखातिका प्रादि नदियों को उनकी सेनाओं ने प्राननफानन में पार कर लिया। किसी का साहस नहीं हया जो उनका विरोध करता । सह्याद्रि को पाकर सेना विन्ध्याचल पर्वत पर पहुंची। फिर वहां से बढ़ती हुई वह सेना सिन्धु नदी के तट पर जा पहुंची और सम्पूर्ण पश्चिम दिशा के राजाओं को जीता।
इसके बाद भरत ने उत्तर दिशा की ओर अभियान किया। बे विजया पर्वत पर जा पहंचे। वहां विजयार्धदेव चक्रवर्ती के दर्शनों के लिये प्राया और बहमूल्य मेंट देकर चक्रवर्ती को प्रसन्न किया तथा उनका अभिषेक किया। फिर विजयार्घ की वेदी पारकर म्लेच्छ देश में पहँचे। वहाँ अनेक म्लेच्छ राजाओं ने चक्रवर्ती का प्रतिरोध किया। किन्तु सेनापति जयकुमार ने उन्हें पाननफानन में पराजित कर दिया। फिर सेना तमिस्रा नामक विशाल गुफा को पारकर मध्यम म्लेच्छ देश में पहँची। वहाँ चिलात और पावर्त देश के राजाओं ने चक्रवर्ती की सेना का संयुक्त होकर सामना किया। उन राजाओं के सहायक नागमुख और मेघमुख नामक दो देवों ने बड़ा उपद्रव किया। किन्तु जयकुमार सेनापति ने उन दोनों को युद्ध में परास्त कर दिया। तभी से उनका नाम मेघेश्वर पड़ गया। तब दोनों राजाओं ने भी पाकर भरत की अधीनता स्वीकार करली। फिर चक्रवर्ती ने हिमवत कूट पर पहुंच कर हिमवान् पर्वत के राजाओं पर विजय प्राप्त की। फिर वे वृषभाचल पर्वत पर पहुंचे। वहां भरत ने काकिणी रत्न से पर्वत की एक सपाट शिला पर अपना नाम अंकित करना चाहा। उन्होंने सोचा था कि समस्त पृथ्वी को जीतने वाला में ही प्रथम चक्रवर्ती किन्तु जब उन्होंने अपना नाम उस शिला पर लिखना चाहा तो उन्हें यह देख कर बड़ा पाश्चर्य हुआ कि वहाँ नाम लिखने के लिये कोई स्थान नहीं है। वहीं शिला पर असंख्य चक्रवतियों के नाम उत्कीर्ण हैं। तब भरत का अभिमान नष्ट हो गया और उन्होंने स्वीकार किया कि इस भरत क्षेत्र पर मेरे समान शासन और विजय करने वाले असंख्य सम्राट् मुझसे पहले हो चुके हैं। तब उन्होंने एक चक्रवर्ती की प्रशस्ति को अपने हाथ से मिटाया और अपनी प्रशस्ति अंकित की।
इसके पश्चात् विजया पर्वत की उत्तर और दक्षिण श्रेणी के विद्याधर राजा भेंट लेकर भरत की सेवा में उपस्थित हुए। ये दोनों राजा नमि और विनमि चक्रवर्ती के लिये उपहार में सुन्दर कन्यायें भी लाये थे। भरत ने राजा नमि की बहन सुभद्रा के साथ विद्याधरो की परम्परानुसार विवाह किया। यहीं सुभद्रा चक्रवर्ती के पटरानी पद पर प्रतिष्ठित हुई।