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________________ भरत को धर्म रुचि ७ पहा शोभा देखते हुए आगे बढ़े। वे जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे, उनका आश्चर्य भी उसी क्रम से बढ़ रहा था। एक अद्भुत संसार की सृष्टि निमिष मात्र में हो गई, जहां संसार का सम्पूर्ण वैभव विद्यमान है किन्तु उस वभत्र को देखकर वैभव प्राप्ति की मन में कोई ललक नही; अपितु सम्पुर्ण वातावरण में धर्म की सुरभि व्याप्त है। सांसारिक कामनायें मानो समवसरण के द्वार से ही लौट गई हों क्योंकि समवसरण के भीतर उनका प्रवेश वजित है। ___ जब भरत आश्चर्य विमुग्ध होकर परिखा, बन, स्तूप आदि को देख रहे थे, तब द्वारपाल देव आय और वे भरत को मार्ग दिखाते हुए समवसरण में ले गये। वहाँ भरत ने श्रीमण्डप की विभूति को देखा। ये प्रथम पीठिका पर चढ़े और प्रदक्षिणा दी। वहां उन्होंने धर्म चक्रों की पूजा की । फिर उन्होंने द्वितीय पीठ पर स्थित धर्म-ध्वजामों की पूजा की। फिर उन्होंने गन्धकूटी में विराजमान और अष्ट प्राप्तिहार्यों से विभूषित देवाधिदेव भगवान ऋषभ देव की भक्ति भावपूर्वक पूजा की। भगवान अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान थे। उनके ऊपर तीन छत्र सुशोभित थे। उनके ऊपर निरन्तर पुष्पवृष्टि हो रही थी । आकाश में देव-दुन्दुभियों का मधुर नाद हो रहा था। भगवान की अतिशय गम्भीर दिव्य ध्वनि खिर रही थी। भगवान के शरीर से दिव्य स्निग्ध प्रभा विकीर्ण होरही थी। भगवान के दोनों पोर चमर दर रहे थे। और वे महाध्यं प्रासन पर विराजमान थे। भगवान के इस दिव्य रूप को देखकर भरत भक्ति विह्वल हो गए। उनके हृदय में भक्ति को उत्ताल तरंगें प्रवाहित होने लगीं। भक्ति का प्रावेग शब्दों में फट पड़ा और में भगवान की स्तुति करने लगे । समस्त देव पाश्चर्यपूर्वक भरत को देखने लगे।। जब भरत स्तुति कर चुके, तब वे पीठिका से उतर कर मनुष्यों के कक्ष में जाकर बैठ गए। सारी सभा स्तब्ध होकर भगवान के मुख की मोर देख रही थी। उस समय भरत ने हाथ जोड़कर भगवान से धर्म का स्वरूप पछा। तब भगवान की दिव्य ध्वनि प्रगट हुई । उन्होंने धर्म का स्वरूप, धर्म के साधन, मार्ग और उसका फल विस्तारपूर्वक बताया । भगवान का उपदेश सुनकर भरत महाराज ने सम्यग्दर्शन की शुद्धि और अणुव्रतों की परम विशद्धि को प्राप्त किया। अर्थात् उन्होंने श्रावक के पांच अणुब्रत और सप्तशील धारण किए। अन्य अनेक लोगों ने मुनि-दीक्षा धारण की । कुछ ने श्रावक के व्रत लिए । भरत के लघु भ्राता पुरिमताल नगर के स्वामी वृषभसन ने भनि-दीक्षा ले ली और वह भगवान का मुख्य गणधर बना। समवसरण से लौटने पर भरत ने पुत्र जन्मोत्सव मनाया और चत्ररत्न की पूजा की। १४. भरत की दिग्विजय भगवान ऋषभदेव को फाल्गुन कृष्णा एकादशी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी। उसके कुछ दिनों के पश्चात भरत भगवान के दर्शनों के लिए गया था । और वहाँ से आकर पूत्र जन्म का उत्सव मनाया चक्ररत्न की पूजा की थी। इसी प्रकार राज कार्य करते हुए शरद ऋतुग्रा गई। भरत का दिग्विजय द्वारा प्रभाव निरन्तर बढ़ता जाता था। उन्होंने अनेक उद्धत और प्रतापी राजामों को अपने वश में चक्रवर्ती पद कर लिया था। तभी उन्होंने निश्चय किया कि इस विस्तृत अजनाभ वर्ष को विजय करके सम्पूर्ण देश की राजनैतिक एकता स्थापित की जाय। यह निश्चय करके उन्होंने दिग्विजय के लिए प्रयाण किया । उन्होंने उत्तरीय और अधोवस्त्र धारण किया। सिर पर मुकुट धारण किया । वक्षस्थल पर कौस्तुभ मणि और कानों में कुण्डल पहने । उनके ऊपर रत्न निमित छत्र सुशोभित था। उनके दोनों मोर वाराङ्गनायें चमर ढोर रही थीं। वे स्वर्ण निर्मित और रलखचित रय में जाकर विराजमान हो गए। उनके आगे पीछे चारों मोर मुकुटबद्ध राजा लोग थे। उनके साथ एक विशाल
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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