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________________ श्री जिनगुणसम्पत्ति व्रत क **************************** [49 ** आर्थिक के व्रत धारण किये और सन्यासपूर्वक मरण कर स्त्रीलिंग छेदकर दूसरे स्वर्गमें देव हुआ । फिर यहांसे चयकर जम्बूद्वीपके पूर्वविदेह वत्सकायती देशकी सुसीमा नगरीमें सुबुधि नाम राजाकी मनोरमा रानीके केशव नाम पुत्र हुआ, सो उसने बहुत काल तक अपने पिता द्वारा प्रदत्त राज्य सुख न्यायनीतिपूर्वक भोगे । पश्चात् कारण पाय वैराग्यको प्राप्त हुआ और श्रीमन्धरस्वामीके निकट जिन दीक्षा धारण करके दुर्द्धर तपश्चरण किया। सो तपके प्रभावसे सन्यास मरणकर सोलहवें स्वर्गमें देव हुआ । यहांसे बावीस सागरकी आयु सुखके पूर्ण करके गया सो जम्बूद्वीपके विदेह क्षेत्रमें पुष्पकलायती देशकी पुण्डरीकनी नगरीमें कुबेरदत्त सेठकी अनन्तमती सेठानीके धनदेव नामका पुत्र (चक्रवर्ती भण्डारी) हुआ । एक दिन वह धनदेव चक्रवर्तीके साथ मुनिराजकी वन्दनाको गया, स्वामीका उपदेश सुनकर उसने वैराग्यको प्राप्त होकर जिनदीक्षा धारण की और तप करके सन्यास भरण कर सर्वार्थसिद्धिमें अहमिंद हुआ। फिर वहांसे चयकर भरतक्षेत्रके कुरुजांगल देशकी हस्तिनापुर नगरीमें श्रेयांस नामका राजा हुआ सो कितनेक काल राज्यसुख भोगे पश्चात् श्री ऋषभदेव भगवानको आहार दान दिया, जिसके कारण दानियोंमें प्रसिद्ध प्रथम दानवीर कहलाया, जिसकी कथा आज तक प्रख्यात है और लोग उस दानके दिन (वैशाख सुदी ३) को अक्षय तृतीया या अखातीज कहते हैं और उत्सव मनाते हैं क्योंकि सबसे प्रथम दानकी प्रथा इन्हींके द्वारा प्रचलित हुई है।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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