SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** देखो परस्त्रीकी इच्छा मात्रसे अश्वग्रीय प्रतिहर त्रिपृष्ठ द्वारा मारा गया और त्रिपृष्ठको नारायण पदका उदय हुआ सो संपूर्ण तीन खण्ड, विना ही प्रयास त्रिपृष्ठके हाथ आ गये। यर्थात् है, पुण्यसे क्या नहीं हो सकता है? इस प्रकार कितनेक कालतक त्रिपृष्ठ नारायणने संसारके विविध प्रकारके सुख भोगे और अन्त समय रौद्रध्यानसे मरणकर सातये नर्क गया। यहां ३३ सागर तक घोर दुःख भोगकर निकला, सो सिंह हुआ। यहांसे अनेक जीयोंको मार मारकर खाया, जिससे घोर हिंसाके कारण मरकर पुन: प्रथम नरको गमः। यहांसे निकलकर पुन: सिंह हुआ। सो घारण मुनि अमितकिर्तिने उसे धर्मोपदेश देकर सम्बोधन किया। उस समय मुनिकी शांत मुद्रा और सरल उपदेशका उस सिंहपर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने हिंसा त्याग दी और अनशन व्रत धारण करके फाल्गुन वदी चतुर्दशीको प्राण त्यागकर प्रथम स्वर्गमें हरिध्वज नामका देव हुआ। वह देव पुण्यके प्रभावसे अनेक प्रकारके सुख भोगता और निरन्तर धर्म सेवन करता हुआ वहांसे चयकर घातकी खण्ड द्वीपके सुमेरुगिरिके पूर्यदिशामें सीता नदीकी उत्तर दिशामें जो कक्षावती देश है उस देशकी हेमप्रभ नगरीमें कनकप्रभ नाम राजाकी कनकमाला पट्टरानीके गर्भसे हेमध्वज नामका पुत्र हुआ। यह हेमध्यज राजा एक समय अकृत्रिम चैत्यालयोंकी वंदना स्तुतिकर धर्म प्रवण करनेके अनंतर अपने भयांतर पूछने लगा। तब श्री गुरुने कहा तू इससे तीसरे भयमें सिंह था सो मुनिके उपदेशसे हिंसा त्याग कर जिन रात्रि व्रत धारण किया और अनशन प्रतके प्रभाक्से प्रथम स्वर्गमें देव हुआ। अब यहांसे
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy