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________________ श्री जैनव्रत-कथासंग्रह *********** **** समय विश्वभूति राजा कोई निमित्त पाकर वैराग्यको प्राप्त हो गये और अपने पुत्रको बालक जानकर अपने लघु भ्राता विशाखभूतिको राज्य और अपने पुत्र विश्वनंदिको युवराज पद देकर आप दीक्षा लेकर तप करने लगे। ८० ] ******* युवराजदार्थ एक जग तैयार कराया, सो उस बागमें नित्य प्रति अपना चितरंजन किया करता था । वर्तमान राजा विशाखभूतिने बाग देखकर अत्यंत आश्चर्य किया। और इससे उनको विश्वनंदि पर द्वेषबुद्धि उत्पन्न हो गई। इसलिये उसने विश्वनंदिको किसी प्रकार यहांसे निकाल देनेका दृढ निश्चय कर लिया, और उसने युवराजको आज्ञा दी, कि तुम अमुक देश पर्यटन करनेके लिये जाओ । युवराज विश्वनंदि राजाज्ञासे देश परदेशको गया, और उसके क्रिडा करनेका जो बाग था सो राजाने स्वपुत्रको दे दिया ! कितनेक काल जब युवराज देश भ्रमणकर लौटा तो, अपने क्रिडा करनेका बाग अपने काकाके पुत्रके हाथोंमें गया जानकर कुपित हो उसे मारने के लिये चला। सो वह विशाखभूतिका पुत्र भयके मारे वृक्ष पर चढ गया। विश्वनंदीने उस वृक्षको ही उखाड़ दिया। यह देखकर यह राजपुत्र युवराजके चरणोंमें मस्तक झुकाकर क्षमा मांगने लगा । युवराजने अपने भाईको क्षमा करके उठाया, और आप संसारको असार जानकर काका सहित दीक्षा ले ली। काका विशाखभूति बारह प्रकारके दूर्द्धर तप करके दशयें स्वर्गमें देव हुए। युवराजने विश्वनंदि अनेक प्रकारके दूर्द्धर तप करते हुए मासोपवासके अन्तर भिक्षाके अर्थे नगरमें पधारे सो किसी पशुने उन्हें अपने सीगोंसे प्रहार कर भूमिपर गिरा दिया। 8
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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