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________________ [४ *** ** कन्या थी । एक दिन यह कपिलाकुमारी अपनी सखियोंके साथ अठखेलियां करती हुई यनक्रीडाके लिये नगरके बाहर गई, सो वहां श्री परम दिगम्बर साधुको देखकर उनकी अत्यंत निंदा की और घृणाकी दृष्टिसे वह सखियोंसे कहने लगीदेखोरी बहनों, यह कैसा निर्लज्ज पापी पुरुष है कि पशुके समान नग्न फिरा करता है, और अपना अंग स्त्रियोंको दिखाता है। लोगों को ठगनेके लिये लंघन करके वनमें बैठा रहता है, अथवा कभी कभी ऐसा नंगा वनसे वस्तीमें फिरता रहता है । धिक्कार है इसके नरजन्म पानेको इत्यादि अनेको कुवचन कह कर मुनिके मस्तक पर धूल डाल दी और थूक भी दिया। श्री श्रावण द्वादशी व्रत कथा *************** सो अनेकों उपसर्ग आनेपर भी मुनिराज तो ध्यानसे किंचितमात्र भी विचलित न हुए और समभावोंसे उपसर्ग जीतकर केवलज्ञान प्राप्त कर परम पदको प्राप्त हुए, परंतु यह कपिला जिसने मदोन्मत्त होकर श्री योगीराजको उपसर्ग किया था, मरकर प्रथम नरकमें गई। वहांसे निकल कर गधी हुई फिर हथिनी, फिर बिल्ली, फिर नागिन, फिर चांडालनी हुई और वहां से मरकर तुम्हारे घर पुत्री हुई है। सो हे राजा ! इस प्रकार मुनि निंदाके पापसे इसकी यह दुर्गति हुई है। राजाने यह भयांतरका वृत्तांत सुनकर पूछा- हे नाथ! इसका यह पाप कैसे छूटे सो कृपाकर कहिये ? तब स्वामीने कहा- राजा! सुनो, संसारमें ऐसा कोनसा कार्य हैं कि जिसका उपाय न हो। यदि मनुष्य अपने पूर्व कर्मोकी आलोचना निंदा व गर्हना करके आगेको उन पापोंसे पराङ्गमुख होकर पुनः न करनेकी प्रतिज्ञा करे और पूर्व पापोंकी निर्जरार्थ प्रतादिक करे तो पापोंसे छूट सकता हैं।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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