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________________ २६] ** श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ********** ** एक दिन मतिसागर नामक धारणमुनि आकाशमार्गसे गमन करते हुए उसी नगरमें आये, तो उस महाशर्माने अत्यंत भक्ति सहित श्री मुनिको पड़गाह कर विधिपूर्वक आहार दिया और उनसे धर्मोपदेश सुना। पश्चात् जुगलकर जोडकर विनययुक्त हो पूछा- हे नाथ! यह मेरी कालभैरवी नामकी कन्या किस पापकर्मके उदयसे ऐसी कुरूपी और कुलक्षसी उत्पन्न हुई हैं, सो कृपाकर कहिये ? तब अवधिज्ञानके धारी श्री मुनिराज कहने लगे, वत्स! सुनो — उज्जैन नगरीमें एक महिपाल नामका राजा और उसकी वेगायती नामकी रानी थी। इस रानीसे विशालाक्षी नामकी एक अत्यन्त सुंदर रूपवान कन्या थी, जो कि बहुत रूपवान होनेके कारण बहुत अभिमानिनी थी और इसी रूपके मदमें उसने एक भी सद्गुण न सीखा । यथार्थ है अहंकारी (मानी) नरोंको विद्या नहीं आती है। 1 एक दिन वह कन्या अपनी चित्रसारीमें बैठी हुई दर्पण में अपना मुख देख रही थी कि इतनेमें ज्ञानसूर्य नामके महातपस्वी श्री मुनिराज उसके घरसे आहार लेकर बाहर निकले, सो इस अज्ञान कन्याने रूपके मदसे मुनिको देखकर खिडकीसे मुनिके उपर थूक दिया और बहुत हर्षित हुई। परंतु पृथ्वीके समान क्षमावान श्री मुनिराज तो अपनी नीची दृष्टि किये हुये ही चले गये। यह देखकर राजपुरोहित इस कन्याका उन्मत्तपना देख उस पर बहुत क्रोधित हुआ, और तुरंत ही प्रासुक जलसे श्री मुनिराजका शरीर प्रक्षालन करके बहुत भक्तिसे वैयावृत्य कर स्तुति की। यह देखकर वह कन्या बहुत लज्जित हुई, और अपने किये हुये नीच कृत्य पर पश्चाताप करके श्री मुनिके पास गई और नमस्कार करके अपने
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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